आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख।
अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह यह हक़ीक़त देख, लेकिन ख़ौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब, जंग लड़नी है तुझे कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख।
दिल को बहला ले, इजाज़त है, मगर इतना न उड़ रोज़ सपने देख, लेकिन इस क़दर प्यारे न देख।
ये धुँधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है रोग़नों को देख, दीवारों में दीवारें न देख।
राख, कितनी राख है, चारों तरफ़ बिखरी हुई राख में चिंगारियाँ ही देख, अँगारे न देख।
- दुष्यंत कुमार
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