आदर्श जन संसार में इतने कहाँ पर हैं हुए ? सत्कार्य्य-भूषण आर्य्यगण जितने यहाँ पर हैं हुए । हैं रह गये यद्यपि हमारे गीत आज रहे सहे । पर दूसरों के भी वचन साक्षी हमारे हो रहे ।। ३० ।।
गौतम, वशिष्ठ-समान मुनिवर ज्ञान-दायक थे यहाँ, मनु, याज्ञवल्क्य-समान सप्तम विधि-विधायक थे यहाँ । बाल्मीकि वेदव्यास-से गुण-गान गायक थे यहाँ, पृथु, पुरु, भरत, रघु-से अलौकिक लोकनायक थे यहाँ ।। ३१ ।।
लक्ष्मी नहीं, सर्वस्व जावे, सत्य छोड़ेंगे नहीं; अन्धे बने पर सत्य से सम्बन्ध तोड़ेंगे नहीं । निज सुत-मरण स्वीकार है पर वचन की रक्षा रहे, हैँ कौन जो उन पूर्वजों के शील की सीमा कहे ।। ३२ ।।
सर्वस्व करके दान जो चालीस दिन भूखे रहे, अपने अतिथि-सत्कार में फिर भी न जो रूखे रहे । पर-तृप्ति कर निज तृप्ति मानी रन्तिदेव नरेश ने, ऐसे अतिथि सन्तोष-कर पैदा किये इस देश ने ।। ३३ ।।
आमिष दिया अपना जिन्होंने श्येन-भक्षण के लिये, जो बिक गए चाण्डाल के घर सत्य-रक्षण के लिये! दे दी जिन्होंने अस्थिर्यों परमार्थ-हित जानी जहाँ शिवि, हरिश्चन्द्र, दधीचि-से होते रहे दानी यहाँ ।। ३४ ।।
सत्पुत्र पुरु-से थे जिन्होंने तात-हित सब कुछ सहा, भाई भरत-से थे जिन्होंने राज्य भी त्यागा अहा ! जो धीरता के, वीरता के प्रौढ़तम पालक हुए, प्रह्याद, ध्रुव, कुश, लव तथा अभिमन्यु-सम बालक हुए ।। ३५ ।।
वह भीष्म का इन्द्रिय-दमन, उनकी धरा-सी धीरता, वह शील उनका और उनकी वीरता, गम्भीरता । उनकी सरलता और उनकी वह विशाल विवेकता, है एक जन के अनुकरण में सब गुणों की एकता ।। ३६ ।।
वर वीरता में भी सरसता वास करती थी यहाँ, पर साथ ही वह आत्म-संयम था यहाँ का-सा कहाँ ? आकर करे रति-याचना जो उर्वशी-सी भामिनी, फिर कौन ऐसा है, कहे जो ''मत कहो यों कामिनी'' ।। ३७ ।।
यदि भूलकर अनुचित किसी ने काम कर डाला कभी, ता वह स्वयं नृप के निकट दण्डार्थ जाता था तभी । अब भी 'लिखित' मुनि का चरित वह लिखित है इतिहास में, अनुपम सुजनता सिद्ध ए जिसके अमल आभास में ।। ३८ ।।
- मैथिलीशरण गुप्त
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