हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।
हमारे पूर्वज | भारत-भारती (काव्य)    Print  
Author:मैथिलीशरण गुप्त | Mathilishran Gupt
 

उन पूर्वजों की कीर्ति का वर्णन अतीव अपार है,
गाते नहीं उनके हमीं गुण गा रहा संसार है ।
वे धर्म पर करते निछावर तृण-समान शरीर थे,
उनसे वही गम्भीर थे, वरवीर थे, ध्रुव धीर थे ।। १९।।

उनके अलौकिक दर्शनों से दूर होता पाप था,
अति पुण्य मिलता था तथा मिटता हृदय का ताप था ।
उपदेश उनके शान्तिकारक थे निवारक शोक के,
सब लोक उनका भक्त था, वे थे हितैषी लोक के ।। २० ।।

लखते न अघ की ओर थे वे, अघ न लखता था उन्हें,
वे धर्म्म को रखते सदा थे, धर्म्म रखता था उन्हें !
वे कर्म्म से ही कर्म्म का थे नाश करना जानते,
करते वही थे वे जिसे कर्त्तव्य थे वे मानते ।।२१।।

वे सजग रहते थे सदा दुख-पूर्ण तृष्णा-भ्रान्ति से ।
जीवन बिताते थे सदा सन्तोष-पूर्वक शान्ति से ।
इस लोक में उस लोक से वे अल्प सुख पाते न थे,
हँसते हुए आते न थे, रोते हुए जाते न थे ।।२२।।

जिनकी अपूर्व सुगन्धि से इन्द्रिय-मधुपगण थे हिले,
सद्भाव सरसिज वर जहाँ पर नित्य रहते थे खिले ।
लहरें उठाने में जहाँ व्यवहार-मारुत लग्न था,
उन्मत्त आत्मा-हंस उनके मानसों में मग्न था ।।२३।।

वे ईश-नियमों की कभी अवहेलना करते न थे,
सन्मार्ग में चलते हुए वे विघ्न से डरते न थे ।
अपने लिए वे दूसरों का हित कभी हरते न थे,
चिन्ता-प्रपूर्ण अशान्तिपूर्वक वे कभी मरते न थे ।।२४।।

वे मोह-बन्धन-मुक्त थे, स्वच्छन्द थे, स्वाधीन थे;
सम्पूर्ण सुख-संयुक्त थे, वे शान्ति-शिखरासीन थे ।
मन से, वचन से, कर्म्म से वे प्रभु-भजन में लीन थे,
विख्यात ब्रह्मानन्द - नद के वे मनोहर मीन थे ।। २५ ।।

उनके चतुर्दिक-कीर्ति-पट को है असम्भव नापना,
की दूर देशों में उन्होंने उपनिवेश-स्थापना ।
पहुँचे जहाँ वे अज्ञता का द्वार जानो रुक गया,
वे झुक गये जिस ओर को संसार मानो झुक गया ।। २६ ।।

वर्णन उन्होंने जिस विषय का है किया, पूरा किया;
मानो प्रकृति ने ही स्वयं साहित्य उनका रच दिया ।
चाहे समय की गति कभी अनुकूल उनके हो नहीं,
हैं किन्तु निश्चल एक-से सिद्धान्त उनके सब कहीं ।। २७ ।।

वे मेदिनी-तल में सुकृत के बीज बोते थे सदा,
परदुःख देख दयालुता से द्रवित होते थे सदा ।
वे सत्वगुण-शुभ्रांशु से तम-ताप खोते थे सदा,
निश्चिन्त विघ्न-विहीन सुख की नींद सोते थे सदा ।। २८ ।।

वे आर्य ही थे जो कभी अपने लिए जीते न थे;
वे स्वार्थ-रत हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे ।
संसार के उपकार-हित जब जन्म लेते थे सभी,
निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी? ।। २९ ।।

 

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश