एक भाषा सिर्फ़ शब्दों और व्याकरण से बहुत आगे है। यह संस्कृति का प्राण है और उसका शरीर भी। यह वह प्रकाश है जो हमारे ज्ञान के सफ़र को न सिर्फ़ प्रकाशित करता है बल्कि विस्तृत भी करता है।
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विविध
इस श्रेणी के अंतर्गत
मलय व हिन्दी का मेल
अच्छा है कि दिल पास में नहीं था
हैप्पी जी को दिल का दौरा पड़ गया, और उन्हें दो स्टंट लगवाने पड़े। हैप्पी जी विदेश में रहते हैं, इसलिए उनकी चिकित्सा देखभाल तत्काल हो गई। अगर हमारी तरह भारत में रहते, तो उन्हें चिकित्सा तक पहुँचने के लिए भी बहुत सारे स्टंट करने पड़ते हैं, और फिर आगे तो खैर भगवान ही मालिक रहता ही है।
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कुत्ते और इंसान
शहर के बीचों-बीच एक बगीचा है, जहां रोज़ सुबह लोग टहलने आते हैं। किसी के हाथ में कुत्ते की रस्सी है, किसी के हाथ में मोबाइल। कुत्ते बेफिक्र घास पर दौड़ रहे हैं, और लोग थके-हारे सांसें ले रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कुत्ते भी इंसान को टहला रहे हों।
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क्षमा कल्याण द्वारा व्यवहार दर्शन से मनोगत पवित्रता
“अन्तर्मन की पवित्रता को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने हेतु मानवीय संवेदनशीलता सर्वाधिक प्रखर एवं मुखर रूप से प्रेरणादायी भूमिका निभाती है जिसमें मानवनिष्ठ सरोकार के माध्यम से भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ ही अन्तःकरण की पवित्र भावना का स्वरूप भाषायी शुचिता के द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। जीवन में सुख. शाँति एवं आनंद के प्रकल्प की तलाश करते हुए व्यक्ति सैद्धान्तिक रूप से--'रहिमन मीठे वचन से सुख उपजत चहुँ ओर...' तक पहुँच जाता है, जहाँ उसे स्वयं की भावना पर कार्य करने का सुअवसर प्राप्त होते ही--"जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी...’ का व्यावहारिक एवं निष्पक्ष व्याख्या अनुगमन हेतु प्राप्त हो जाती है हृदय की निर्मलता से ही मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाले विचारों की स्पष्टता अर्थात् बोधगम्यता के संदर्भ एवं प्रसंग में विश्लेषण निर्धारित हो पाता है जिसे मर्यादित आचरण द्वारा सम्प्रेषण को वृहद स्तर पर सामाजिक स्वीकारोक्ति के स्वरूप में मान्यता प्राप्त होती है।”
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श्रीरंगम की कहानी
तमिलनाडु के तिरुच्ची जिले में एक वैष्णव रहते थे। उनकी सोलह संतानें थीं। श्रीरंगम मंदिर में जब भी प्रसाद बांटा जाता था, वे पहले आकर खड़े हो जाते थे। केवल अपने लिए नहीं, अपने संपूर्ण परिवार के लिए प्रसाद मांगते थे।
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रमेशचन्द्र शाह के उपन्यास गोबरगणेश में प्रकृति और नियति की प्रासंगिकता
सारांश- मानव जीवन का संबंध प्रकृति और नियति की प्रासंगिकता से है। जो समय-समय पर मनुष्य को विभिन्न प्रकार की संवेदनाऐं देती है। मनुष्य इस संवेदनाओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार के सृजन और रचना करता है जो उसकी जीवन की प्रकृति और नियति बन जाती है।
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