त्रिलोक सिंह ठकुरेला साहित्य जगत का परिचित नाम है। उन्होंने लुप्तप्रायः कुण्डलिया छंद के लिए विशेष उद्यम किया है। उन्हीं की प्रेरणा से कुछ साहित्यकार 19 नवंबर को कुण्डलिया दिवस का आयोजन कर रहे हैं।
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
कुण्डलिया दिवस
डॉo सत्यवान 'सौरभ' के दोहे
सास ससुर सेवा करे, बहुएँ करती राज।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज॥
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बड़ी नाज़ुक है डोरी | ग़ज़ल
बड़ी नाज़ुक है डोरी साँस की यह
कहीं टूटी तो बाकी क्या रहेगा
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सत्य-असत्य में अंतर
मैंने चवन्नी डाली
जैसे ही आरती की थाली
सामने आई,
बाजू वाले ने
हमें घूरते हुए
सौ का पत्ता डाला
और छाती फुलाई!
तभी पीछे से किसी ने कहा,
सेठजी
घर में छापा पड़ गया है,
शहर में इज्जत का
जनाज़ा निकल गया है,
उसने चोर आंखों से
हमें देखा,
उसकी निगाह
शर्म से गड़ रही थी,
और अब मेरी चवन्नी
सौ पे भारी पड़ रही थी।
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न संज्ञा, न सर्वनाम
मैं हूँ--
न संज्ञा, न सर्वनाम,
वर्णाक्षरों के भीड़ में,
शायद कोई
मात्रा गुमनाम!
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नून-तेल की खोज में
सफ़र की पिछली रात
हरिया को नींद नहीं आई,
उठ गया, अहले सुबह
भर लिया, सारा कपड़ा
अपनी पुरानी थैली में,
खा लिया, भात और चटनी।
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मुकरियाँ
चिपटा रहता है दिन भर वो
बिन उसके भी चैन नहीं तो
ऊंचा नीचा रहता टोन
ए सखि साजन? ना सखि फोन!
इसे जलाकर मैं भी जलती
रोटी भात इसी से मिलती
ये बैरी मिट्टी का दूल्हा
ए सखि साजन? ना सखि चूल्हा!
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माँ के बाद पिता
माँ मर गयी तो पिता यूँ हो गए,
जैसे दो में से एक नहीं, सिर्फ शून्य शेष रह गया,
माँ, पिता और बच्चों के संबाद का पुल थी,
अब पिता अकसर ख़ामोश रहते हैं,
माँ के साथ उनका वो पुल भी बह गया।
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निःशब्द कविता
उधर गगन में
सूरज की बिंदी
नीले नभ में
तैरते बादल
बादलों के बीच
उड़ते परिंदे।
इधर झील में
खिले कमल
मंद पवन
निश्चल बन
निहारती
केवल मौनता
कोई रच गया
निःशब्द कविता।
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नारी
कहते मुझे नारी
लता सी कोमल
जहां मिला ठोस आधार
लता सी विश्वास कर
लिपटती जाऊं
जड़े मेरी परिपक्व
छोड़ूं ना वो स्थल
पर--
निशब्द
मूक
अशक्त
नहीं मैं
अद्भुत ईश्वरीय कृति हूँ--
महारानी बन शासन
करूं मै--
बनूं कोमलाग्नि लावण्या
पुरुषों को करूं मौन
विधोत्तमा बन रचूं मैं--
पुस्तकें
रहूं घूंघट की ओट में
मांथे पे लागा बिंदी
गृहिणी सी लजाती
माँ, भार्या, भगिनी, पुत्री
प्रेमिका बनी
पर रही बस नारी
मुझे रच विधाता
चकरा गया
जो ना कटे आरि से
ऐसी बनी मैं नारी
बस, नारी
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गँवाई ज़िंदगी जाकर...
गँवाई ज़िंदगी जाकर बचानी चाहिए थी
बुढ़ापे के लिए मुझको जवानी चाहिए थी
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सपनों को संदेसे भेजो
सपनों को संदेसे भेजो,
ख़ुशियों को चिट्ठी लिखवाओ।
उनकी आवभगत करनी है,
मुस्कानों को घर बुलवाओ॥
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भाग्य विधाता
कितनी ही मेहनत करके दो जून रोटियां पाते हैं,
भाग्य विधाता लोकतंत्र के सड़कों पर रात बिताते हैं।
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