सरकारी कार्यालय में
नौकरी मांगने पहुँचा
तो अधिकारी ने पूछा-
"क्या किया है?"
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
हिन्दी-हत्या
कवि वृन्द के दोहे
जाही ते कछु पाइये, करिये ताकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझत पियास॥
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वाल्मीकि से अनुरोध
महाकवि वाल्मीकि
उपजीव्य है आपकी रामायण
तुलसी से लेकर न जाने कितने ही
प्रतिभावान कवियों ने अपने विवेक और मेधा से
इसे रचा है बार बार
रामायण की कथा
कितने ही रंगों और सुगंधों के साथ
बन गई है मानव जन जीवन का हिस्सा
हे आदि-कवि तुम्हें प्रणाम!
महाकवि, मैं कवि नहीं हूँ
मुझमें बहुत सीमित है मेधा और विवेक
इसलिए किसी चोर की तरह घुस रहा हूँ
इस महाग्रंथ में
और खोजना चाहता हूँ उन पात्रों को
जिन्हें आपने गढ़ा तो सही
पर इतना अवसर नहीं दिया
कि वे कह पाते अपने मन की बात!
महाकवि, आपने उन्हें बना दिया
इस रथ के पहियें
और कभी नहीं सुनी
उनके रुदन की आवाज़
सब देखते रहे रथ की ध्वजा
उसका वैभव और उसकी गति
किसने देखना चाहा उन गड्ढों को
जो हर पल हिला देते थे
इन पहियों का संतुलन
फिर भी ये चलते रहे समानांतर
आपके ही गंतव्य की ओर
आप तो बस श्रीराम के ही सारथी बने रहे!
महाकवि, मुझे क्षमा करना
मैं विश्वकर्मा तो नहीं हूँ
कि उन अचर्चित पात्रों के लिए
रच दूं एक नया नगर
पर हाँ, एक छोटा-सा बढ़ई ज़रूर हूं
जो बनाना चाहता है
एक सुंदर सी खिड़की
आपकी ही दीवार में
जिसमें से झाँक सके
उर्मिला, सुमित्रा और मंदोदरी जैसे पात्र
थोड़ी-सी साँस ले सकें ताज़ा हवा में
और हम उन्हें जी भर कर देख सकें
उनकी अनकही भावनाओं के साथ!
मुझे शक्ति देना महाकवि,
कलयुग में लोग
मानवीय भावनाओं के विश्लेषण को लेकर
अधिक ही विचारशील हो गए हैं!
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आखिर मैं हूँ कौन?
एक मानव...
नहीं।
मुझे तो धीरे-धीरे
मानवता के सभी मूल्य
भूलते जा रहे हैं।
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लड़कपन
चित्त के चाव, चोचले मन के,
वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के।
चैन था, नाम था न चिन्ता का,
थे दिवस और ही लड़कपन के॥
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शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी
'काफ़िर है, काफ़िर है, मारो!'
उत्तेजित जन चिल्लाये;
विद्यार्थी जी बिना झिझक के
झट से आगे बढ़ आये।
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मातृभाषा
जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर
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ढोल, गंवार...
मैंने अपनी पत्नी से कहा --
"संत महात्मा कह गए हैं--
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी!"
[इन सभी को पीटना चाहिए!]
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माँ की भाषा
जब खेलते-खेलते
छा जाती है कोई धुन अचानक
मेरे खिलौनों पर
माँ की याद आती है अनायास
यह धुन गुनगुनाती थी माँ
मुझे झुलाते हुए झूले में
आ जाती है माँ की याद
जब फूलों की एक गंध
बहने लगती है हवा में अचानक
पतझड़ की किसी सुबह,
सुबह-सबेरे मंदिर की घंटियों की गंध
मेरी माँ की गंध जैसी लगती है
कमरे की खिड़की से
जब मैं देखता हूँ
सुदूर नीले आसमान में
लगता है माँ की निगाहों की स्थिरता
छा जाती है सारे आकाश पर
ऐसी ही है मेरी माँ की भाषा
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कुछ कर न सका
मैं जीवन में कुछ कर न सका
जग में अंधियारा छाया था,
मैं ज्वाला ले कर आया था,
मैंने जलकर दी आयु बिता, पर जगती का तम हर न सका ।
मैं जीवन में कुछ कर न सका !
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जब सुनोगे गीत मेरे...
दर्द की उपमा बना मैं जा रहा हूँ,
पीर की प्रतिमा बना मैं जा रहा हूँ।
दर्द दर-दर का पिये मैं, कब तलक घुलता रहूँ।
अग्नि अंतस् में छुपाये, कब तलक जलता रहूँ।
वेदना का नीर पीकर, अश्रु आँखों से बहा।
हिम-शिखर की रीति-सा मैं, कब तलक गलता रहूँ।
तुम समझते पल रहा हूँ, मैं मगर,
दर्द का पलना बना मैं जा रहा हूँ।
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क्या बताएं आपसे हम
क्या बताएं आपसे हम हाथ मलते रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए
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सूर्य की अब...
सूर्य की अब किसी को ज़रूरत नहीं, जुगनुओं को अँधेरे में पाला गया
फ़्यूज़ बल्बों के अद्भुत समारोह में, रोशनी को शहर से निकाला गया
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रखकर अपनी आंख में...
रखकर अपनी आंख में कुछ अर्जियां, तुम देखना
बस मिलेंगी कागजी हमदर्दियां, तुम देखना
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एक दरी, कंबल, मफलर
एक दरी, कंबल, मफलर, मोज़े, दस्ताने रख देना
कुछ ग़ज़लों के कैसेट, कुछ सहगल के गाने रख देना
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ख़्वाब छीने, याद भी...
ख़्वाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली।
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ओ देस से आने वाले
ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में है याराने-वतन?
क्या अब भी वहाँ के बाग़ों में मस्ताना हवायें आती हैं?
क्या अब भी वहाँ के परबत पर घनघोर घटायें छाती हैं?
क्या अब भी वहाँ की बरखायें वैसे ही दिलों को भाती हैं?
ओ देस से आने वाले बता!
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हिन्दी गीत
हिन्दी भाषा देशज भाषा,
निज भाषा अपनाएँ।
खुद ऊँचा उठें, राष्ट्र को भी--
ऊँचा ले जाएँ॥
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