जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने, सरगम का घूँघट खोल दिया
दो बोल सुने ये फूलों ने मौसम का घूँघट खोल दिया
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
जब दर्द बढ़ा तो बुलबुल ने | गीत
श्याम सुंदर पर दोहे
मेरी भवबाधा हरो, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥
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चिड़िया | कविता
'च' ने चिड़िया पर कविता लिखी।
उसे देख 'छ' और 'ज' ने चिड़िया पर कविता लिखी।
तब त, थ, द, ध, न, ने
फिर प, फ, ब, भ और म, ने
'य' ने, 'र' ने, 'ल' ने
इस तरह युवा कविता की बारहखड़ी के सारे सदस्यों ने
चिड़िया पर कविता लिखी।
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विरह का गीत
तुम्हारी याद में खुद को बिसारे बैठे हैं।
तुम्हारी मेज पर टॅगरी पसारे बैठे हैं।
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अच्छा है पर कभी-कभी | हास्य
बहरों को फ़रियाद सुनाना, अच्छा है पर कभी-कभी
अंधों को दर्पण दिखलाना, अच्छा है पर कभी-कभी
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सांईं की कुण्डलिया
सांईं बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।
हरिनाकस्यप कंस को गयउ दुहुन को राज॥
गयउ दुहुन को राज बाप बेटा में बिगरी।
दुश्मन दावागीर हँसे महिमण्डल नगरी॥
कह गिरधर कविराय युगन याही चलि आई।
पिता पुत्र के बैर नफ़ा कहु कौने पाईं॥
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बड़प्पन
उनके बड़प्पन को मैं हमेशा कोसता रहा,
पता ही न लगा कि वे कितने बड़े थे,
ऊपर से, या नीचे से,
आगे से या पीछे से,
पेट तो उनका महा भक्षणी,
सिर उनका सड़ा हुआ था,
वे पूरे सरोवर को गंदा किए हुए,
एक कालिया नाग।
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विदा होता है वह
मेरी हथेली पर छोड़ कर
अपने गर्म होंठों के अहसास
मेरे साथ खुद को भी बहलाता है
तब विदा होता है वह
मैं अन्यमनस्क सी
देखती हूँ अपनी हथेली
वक्त के रुकने की दुआ करती सी
वक्त और तेज़ी से भागने लगता है
और फिर
धीरे से मेरा हाथ मेरी गोद में रखकर,
हौले से पीठ थपथपाता है
फिर विदा होता है वह।
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कह मुकरियाँ
बगिया में है एकछत्र राज
इत्र की दुनिया का सरताज
गुलदस्ते में अलग रुआब
क्या सखि साजन न सखि गुलाब
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अंबर दीप जलाता है
दिन भर चलते-चलते थककर
सूरज जब छुप जाता है
रात की काली चादर पर
अंबर दीप जलाता है।
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अपने घर में बना मेहमान...
अपने घर में बना मेहमान जो बाशिन्दा है,
मुक्त आकाश का वो परकटा परिन्दा है।
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लोगों का मशवरा है कि…
लोगों का मशवरा है कि मैं घर खरीद लूं,
उन्हें मालूम नहीं पहले मुक़द्दर खरीद लूं।
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आज कहना है हमारा
आज कहना है हमारा उन अमीरों के लिए।
हाथ लोहे के बने क्या दिल टटोला आपने॥
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ज़िंदगी तुझ को जिया है | ग़ज़ल
ज़िंदगी तुझ को जिया है कोई अफ़्सोस नहीं
ज़हर ख़ुद मैं ने पिया है कोई अफ़्सोस नहीं
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दीवारों-दर थे... | ग़ज़ल
दीवारों-दर थे, छत थी वो अच्छा मकान था
दो-चार तीलियों पर कितना गुमान था
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जब यार देखा नैन भर
जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर,
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाय कर।
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याद तुम्हारी आई
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
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