साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।
काव्य
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

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हमने अपने हाथों में - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

हमने अपने हाथों में जब धनुष सँभाला है,
बाँध कर के सागर को रास्ता निकाला है।
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गिरमिटिया की पीर - डॉ मृदुल कीर्ति

मैं पीड़ा की पर्ण कुटी में
पीर पुराण भरी गाथा हूँ
गिरमिटिया बन सात समंदर
पार गया वह व्यथा कथा हूँ।
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मेरी औक़ात का... - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

मेरी औक़ात का ऐ दोस्त शगूफ़ा न बना
कृष्ण बनता है तो बन, मुझको सुदामा न बना
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जिस तिनके को ... - ज्ञानप्रकाश विवेक | Gyanprakash Vivek

जिस तिनके को लोगों ने बेकार कहा था
चिड़िया ने उसको अपना संसार कहा था
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कब निकलेगा देश हमारा - कुँअर बेचैन

पूछ रहीं सूखी अंतड़ियाँ
चेहरों की चिकनाई से !
कब निकलेगा देश हमारा निर्धनता की खाई से !!
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आराधना झा श्रीवास्तव के हाइकु - आराधना झा श्रीवास्तव

वृत्त में क़ैद
गोल गोल घूमती
धुरी सी माँ
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चांद कुछ देर जो ... | ग़ज़ल - संध्या नायर | ऑस्ट्रेलिया

चांद कुछ देर जो खिड़की पे अटक जाता है
मेरे कमरे में गया दौर ठिठक जाता है
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नम्रता पर दोहे - सुशील शर्मा

सच्चा सद्गुण नम्रता, है अमूल्य यह रत्न।
नम्र सदा विजयी रहे, व्यर्थ अहं के यत्न॥
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संकल्प-गीत  - उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

हम तरंगों से उलझकर पार जाना चाहते हैं।
कष्ट के बादल घिरें हम किंतु घबराते नहीं हैं
क्या पतंगे दीपज्वाला से लिपट जाते नहीं हैं?
फूल बनकर कंटकों में, मुस्कराते ही रहेंगे,
दुख उठाए हैं, उठाएंगे, उठाते ही रहेंगे।
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मातृभाषा प्रेम पर भारतेंदु के दोहे  - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन॥
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सब बुझे दीपक जला लूं - महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma

सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज दीपक रागिनी जगा लूं!
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ये मत पूछो... - प्रदीप चौबे

ये मत पूछो कब होगा
धीरे-धीरे सब होगा
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स्वदेश - गयाप्रसाद शुक्ल सनेही

वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
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कुर्सी पर काका की कुंडलियाँ - काका हाथरसी | Kaka Hathrasi

कुरसीमाई
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तेरे भीतर अगर नदी होगी | ग़ज़ल - शैल चतुर्वेदी | Shail Chaturwedi

तेरे भीतर अगर नदी होगी
तो समंदर से दोस्ती होगी
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गूंजी हिन्दी - अटल बिहारी वाजपेयी | Atal Bihari Vajpayee
गूंजी हिन्दी विश्व में, स्वप्न हुआ साकार;
राष्ट्र संघ के मंच से, हिन्दी का जयकार;
हिन्दी का जयकार, हिन्द हिन्दी में बोला;
देख स्वभाषा-प्रेम, विश्व अचरज से डोला;
कह कैदी कविराय, मेम की माया टूटी;
भारत माता धन्य, स्नेह की सरिता फूटी!

- अटल बिहारी वाजपेयी 
[कैदी कविराय की कुंडलियाँ]
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कैसी लाचारी - अश्वघोष

हाँ! यह कैसी लाचारी
भेड़ है जनता बेचारी
सहना इसकी आदत है--
मुड़ती वहाँ, जहाँ जाती!
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तेरा रूप | षट्पद - गुरुराम भक्त

देखा है प्रत्यंग तुम्हारा, जो कहते थे;
जो सेवक-से साथ सर्वदा ही रहते थे;
जो अपने को बता रहे अवतार तुम्हारा;
जो कुछ हो तुम वही, कहें जो मैं हूँ सारा;
'भक्त' नहीं क्या विषय यह, अद्भुत और अनूप है,
समझ सके वे भी नहीं, कैसा तेरा रूप है !
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इन्द्र-धनुष - मंगलप्रसाद विश्वकर्मा

घुमड़-घुमड़ नभ में घन घोर,
छा जाते हैं चारों ओर
विमल कल्पना से सुकुमार
धारण करते हो आकार!
अस्फुट भावों का प्राणों में,
तुम रख लेते हो गुरु भार!!
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छन-छन के हुस्न उनका | ग़ज़ल - निज़ाम-फतेहपुरी

छन-छन के हुस्न उनका यूँ निकले नक़ाब से।
जैसे निकल रही हो किरण माहताब से।।
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टूट कर बिखरे हुए... - ज़फ़रुद्दीन ज़फ़र

टूट कर बिखरे हुए इंसान कहां जाएंगे
दूर तक सन्नाटा है नादान कहां जाएंगे
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मन के धब्बे | गीत - गोकुलचंद्र शर्मा

छुटा दे धब्बे दूँगी मोल।
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