जहाँ न हित-उपदेश कुछ, सो कैसा साहित्य?
हो प्रकाश से रहित तो, कौन कहे आदित्य?
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
मलूकदास के दोहे
भेष फकीरी जे करें, मन नहिं आवै हाथ ।
दिल फकीर जे हो रहे, साहेब तिनके साथ ॥
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राखी
चली आती है अब तो हर कहीं बाज़ार की राखी
सुनहरी सब्ज़ रेशम ज़र्द और गुलनार की राखी
बनी है गो कि नादिर ख़ूब हर सरदार की राखी
सलोनों में अजब रंगीं है उस दिलदार की राखी
न पहुँचे एक गुल को यार जिस गुलज़ार की राखी
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जिंदगी की चादर
जिंदगी को जिया मैंने
इतना चौकस होकर
जैसे कि नींद में भी रहती है सजग
चढ़ती उम्र की लड़की
कि कहीं उसके पैरों से
चादर न उघड़ जाए।
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क्षणिकाएँ
विडंबना
इक अदना-सा मोबाइल
कुछ हजार या
कुछेक का, लाख़ का भी मोबाइल
कभी दूर के रिश्तों को जोड़ता था
आज
पास के रिश्तों को ही तोड़ता है मोबाइल
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तलाश जारी है...
स्वदेस में बिहारी हूँ, परदेस में बाहरी हूँ
जाति, धर्म, परंपरा के बोझ तले दबी एक बेचारी हूँ।
रंग-रूप,नैन-नक्श, बोल-चाल, रहन-सहन
सब प्रभावित, कुछ भी मौलिक नहीं।
एक आत्मा है, पर वह भौतिक नहीं।
जो न था मेरा, जो न हो मेरा
फिर किस बहस में उलझें सब
कि ये है मेरा और ये तेरा।
जब तू कौन है ये नहीं जानता,
खुद को ही नहीं पहचानता,
कहां से आया और कहां चला जाएगा
साथ कुछ भी नहीं, सब पीछे छूट जाएगा।
जो छूट जाएगा, तेरे काम नहीं आएगा
फिर वो क्या है जो तेरी पहचान है,
जिसमें अटकी तेरी जान है।
वह देह से परे, भावनाओं का एक जाल है
जिससे रहित तेरी काया एक कंकाल है।
पर क्या तू कभी इनका मोल कर पाया
टुकड़ों में बंटी अपनी पहचान को समेट पाया
तू कौन है ये अगर जान ले
ख़ुद को अगर पहचान ले
तो एक मुलाकात मेरी भी करवाना
क्योंकि…
खुद को पहचानने की
मेरी तलाश अब भी जारी है…
तलाश जारी है…
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मेरे इस दिल में.. | ग़ज़ल
मेरे इस दिल में क्या है क्या नहीं है
अभी तक मैंने ये सोचा नहीं है
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कमलेश भट्ट कमल के हाइकु
कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना!
खाता है बेटा
तृप्त हो जाती है माँ
बिना खाए ही!
समुद्र नहीं
परछाईं खुद की
लाँघो तो जानें !
मुझ में भी हैं
मेरी सात पीढ़ियाँ
तन्हा नहीं मैं!
प्रकृति लिखे
कितनी लिपियों में
सौंदर्य-कथा!
सुन सको तो
गंध-गायन सुनो
पुष्प कंठों का!
पल को सही
बुझने से पहले
लड़ी थी लौ भी!
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मनोदशा
वे बुनते हैं सन्नाटे को
मुझको बुनता है सन्नाटा
जीवन का व्यापार अजब है
सुख मिलता है, पाकर घाटा।
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प्रश्न
प्रश्न था - " नाम ?"
हमने लिख दिया - "बदनाम"
"काम"
"बेकाम।"
"आयु ?"
"जाने राम ।"
"निवास स्थान ?"
"हिन्दुस्तान।"
"आमदनी ?" "
"आराम हराम ।"
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शानदार | क्षणिका
खाना शानदार
रहना शानदार
भाषण शानदार
श्रोता शानदार
बात इतनी थी
तुम थे तमाशबीन
वे थे दुकानदार
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ढोल, गंवार...
मैंने अपनी पत्नी से कहा --
"संत महात्मा कह गए हैं--
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी!"
[इन सभी को पीटना चाहिए!]
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अच्छे दिन आने वाले हैं
नई बहू जैसे ही पहुंची ससुराल
तो सास ने
शुरू कर दिया
आचार संहिता का आंखों देखा हाल।
बोली- बहू सुन,
मेरी बात को ध्यान से गुन।
सुबह चार बजे उठ जाना
और नहा धोकर ही किचन में जाना।
मंदिर से आने तक मेरा करना इंतजार
फिर से सो मत जाना
वरना पड़ेगी फटकार।
बाकी रूटीन तेरे ससुर जी बताने वाले हैं,
तो बहू बोली- जी, सासू जी
लगता है अच्छे दिन आने वाले हैं।
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लेख की माँग
सम्पादकजी! नमोनमस्ते, पत्र आपका प्राप्त हुआ।
पढ़कर शोक समेत हर्षका भाव हृदय में व्याप्त हुआ॥
फूल गया यह पात देखकर, लेखक मुझे समझते आप।
किन्तु लेख लिख देना होगा, सोच यही होता सन्ताप॥
लेखक क्या हूँ, अनुवादक हूँ, गुपचुप लेख चुराता हूँ।
अदल-बदलकर इधर-उधरसे, अपने नाम छपाता हूँ॥
किन्तु आप से बहुभाषाविद लोगों से में डरता हूँ।
लेख आपके लिये लिखूँ क्या? सोच-सोचकर मरता हूँ॥
यही नहीं केवल है, कारण इसका और दिखाता हूँ।
लेख नहीं क्यों अब लिखता हूँ, वह सब सत्य बताता हूँ॥
बिना टके का लेख माँगते, आप नहीं शर्माते हैं।
लेखों के बदले में हम कुछ लेते हुए लजाते हैं॥
इससे तो है कहीं भला यह, असहयोग कर लें हम आप।
पत्र न भेजें आप मुझे फिर, देवें नहीं मुझे सन्ताप॥
नहीं चाहिये पत्र आपका, मुझे माफ कर दें चुपचाप।
राजी रहूँ इधर मैं भी औ'' खुश रहिये अपने घर आप॥
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चंद्रशेखर आज़ाद
शत्रुओं के प्राण उन्हें देख सूख जाते थे
ज़िस्म जाते काँप, मुँह पीले पड़ जाते थे
देश था गुलाम पर 'आज़ाद' वे कहाते थे।
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लोग उस बस्ती के यारो | ग़ज़ल
लोग उस बस्ती के यारो, इस कदर मोहताज थे
थी ज़ुबां ख़ुद की मगर, मांगे हुए अल्फ़ाज़ थे
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संध्या नायर की दो ग़ज़लें
कलम इतनी घिसो
कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए
करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए
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टूट कर बिखरे हुए...
टूट कर बिखरे हुए इंसान कहां जाएंगे
दूर तक सन्नाटा है नादान कहां जाएंगे
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उठ बाँध कमर
अल्लाह का जो दम भरता है, वो गिरने पर भी उभरता है।
जब आदमी हिम्मत करता है, हर बिगड़ा काम संवरता है।
उठ बाँध कमर क्या डरता है।
फिर देख ख़ुदा क्या करता है॥
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झूठी प्रीत
जग की झूठी प्रीत है लोगो, जग की झूठी प्रीत!
पापिन नगरी, काली नगरी,
धरम दया से खाली नगरी,
पाप से पलनेवाली नगरी,
पाप यहाँ की रीत।
जग की झूठी प्रीत है लोगो, जग की झूठी प्रीत!
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मैं परदेशी... | गीत
ममता में सुकुमार हृदय को कस डाला था,
कुछ को सभी बना स्नेह उनसे पाला था,
यहाँ अकेले सभी - आज यह जान गया।
मैं परदेशी अपना पथ पहिचान गया॥
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