मैया का आया
वृद्धाश्रम से खत
कैसे हो बेटा
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
सबको लड़ने ही पड़े : दोहे
बहुत बुरों के बीच से, करना पड़ा चुनाव ।
अच्छे लोगों का हुआ, इतना अधिक अभाव ।।
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सृजन-सिपाही
लेखनी में रक्त की भर सुर्ख स्याही
काल-पथ पर भी सृजन के हम सिपाही,
तप्त अधरों पर मिलन की प्यास लिखते हैं
हम धरा की देह पर आकाश लिखते हैं
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नीति के दोहे
कबीर के नीति दोहे
साई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय ॥
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गिरमिट के समय
दीन दुखी मज़दूरों को लेकर था जिस वक्त जहाज सिधारा
चीख पड़े नर नारी, लगी बहने नयनों से विदा-जल-धारा
भारत देश रहा छूट अब मिलेगा इन्हें कहीं और सहारा
फीजी में आये तो बोल उठे सब आज से है यह देश हमारा
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अपील
दुनिया भर की सारी धार्मिक किताबों ने,
एक सामूहिक अपील जारी की है…
कि हम आपकी श्रद्धा और सम्मान के लिए
हृदय से आभारी हैं…
लेकिन काश आप हमें पूजने की बजाय
पढ़ लेते!
पढ़ने के साथ-साथ समझ लेते…
समझने के साथ-साथ
अपने जीवन में उतार लेते…
अंत में बड़ी याचना से लिखा है…
हमें हमारा स्वाभाविक परिवेश लौटायें
हमें पूजाघरों से मुक्ति दिलाएं!!!
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माँ अमर होती है, माँ मरा नहीं करती
माँ अमर होती है,
माँ मरा नहीं करती।
माँ जीवित रखती है
पीढ़ी दर पीढ़ी
परिवार, परंपरा, प्रेम और
पारस्परिकता के उस भाव को
जो समाज को गतिशील रखता है
उससे पहिए को खींच निकालता है
परिस्थिति की दलदल से बाहर।
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व्यंग्य कोई कांटा नहीं
व्यंग्य कोई कांटा नहीं-
फूल के चुभो दूं ,
कलम कोई नश्तर नहीं-
खून में डूबो दूं
दिल कोई कागज नहीं-
लिखूं और फाडूं
साहित्य कोई घरौंदा नहीं-
खेलूं और बिगाडूं !
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ऐसे कुछ और सवालों को | ग़ज़ल
ऐसे कुछ और सवालों को उछाला जाये
किस तरह शूल को शूलों से निकाला जाये
फिर चिराग़ों को सलीक़े से जलाना होगा
तम है जिस छोर, उसी ओर उजाला जाये
ये ज़रूरी है कि ख़यालों पे जमी काई हटे
फिर से तहज़ीब के दरिया को खँगाला जाये
फावड़े और कुदालें भी तो ढल सकती हैं
अब न इस्पात से ख़ंज़र कोई ढाला जाये
-राजगोपाल सिंह
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धरती मैया | ग़ज़ल
धरती मैया जैसी माँ
सच पुरवैया जैसी माँ
पापा चरखी की डोरी
इक कनकैया जैसी माँ
तूफ़ानों में लगती है
सबको नैया जैसी माँ
बाज़ सरीखे सब नाते
इक गौरैया जैसी माँ
-राजगोपाल सिंह
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व्यंग्यकार से
और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?"
तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।"
खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।"
पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था
उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ।
अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं
हमें व्यंग्य मत सुनाओ
जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा
और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर
कुर्सी को कैश करता रहा।
व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ
जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा
और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा।
व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ
जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा
और झूठी गवही को पुलिस का संस्कार मानता रहा।
व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ
जो पचास रुपये फ़ीस के लेकर
मलेरिया को टी.बी. बतलाता रहा
और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा।
व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ
जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा
और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा।
व्यंग्य उस सास को सुनाओ
जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया
और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ
जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए
नारी को बाज़ार दिया।
व्यंग्य उस श्रोता को सुनाओ
जो गीत की हर पंक्ति पर बोर-बोर करता रहा
और बकवास को बढ़ावा देने के लिए
वंस मोर करता रहा।
व्यंग्य उस व्यंग्यकार को सुनाओ
जो अर्थ को अनर्थ में बदलने के लिए
वज़नदार लिफ़ाफ़े की मांग करता रहा
और अपना उल्लू सीधा करने के लिए
व्यंग्य को विकलांग करता रहा।
और जो व्यंग्य स्वयं ही अन्धा, लूला और लंगड़ा हो
तीर नहीं बन सकता
आज का व्यंग्यकार भले ही 'शैल चतुर्वेदी' हो जाए
'कबीर' नहीं बन सकता।"
-शैल चतुर्वेदी
[बाज़ार का ये हाल है]
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चतुष्पदियाँ
स्वर के सागर की बस लहर ली है
और अनुभूति को वाणी दी है
मुझ से तू गीत माँगता है क्यों
मैं ने दुकान क्या कोई की है
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चुप क्यों न रहूँ | ग़ज़ल
चुप क्यों न रहूँ हाल सुनाऊँ कहाँ कहाँ
जा जा के चोट अपनी दिखाऊँ कहाँ कहाँ
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कुछ मुक्तक
सभी को इस ज़माने में सभी हासिल नहीं मिलता
नदी की हर लहर को तो सदा साहिल नहीं मिलता
ये दिलवालो की दुनिया है अजब है दास्तां इसकी
कोई दिल से नहीं मिलता, किसी से दिल नहीं मिलता
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मन की आँखें खोल
बाबा, मन की आँखें खोल!
दुनिया क्या है खेल-तमाशा,
चार दिनों की झूठी आशा,
पल में तोला, पल में माशा,
ज्ञान-तराजू लेके हाथ में---
तोल सके तो तोल। बाबा, मनकी आँखें खोल!
झूठे हैं सब दुनियावाले,
तन के उजले मनके काले,
इनसे अपना आप बचा ले,
रीत कहाँ की प्रीत कहाँ की---
कैसा प्रेम-किलोल। बाबा, मनकी आँखें खोल!
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मोल करेगा क्या तू मेरा?
मोल करेगा क्या तू मेरा?
मिट्टी का मैं बना खिलौना;
मुझे देख तू खुशमत होना ।
कुछ क्षण हाथों का मेहमां हूं, होगा फिर मिट्टी में डेरा ।
मोल करेगा क्या तू मेरा ?
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मजदूर की पुकार
हम मजदूरों को गाँव हमारे भेज दो सरकार
सुना पड़ा घर द्वार
मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं
घरबार छोड़ करके शहारों में भटकते हैं
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इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ | ग़ज़ल
इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ
हुस्न और ये हुस्न की दम साज़ियाँ
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तुलसी के प्रति
ऋषि? स्रष्टा? द्रष्ठा? महाप्राण?
अपनी पानवतम वाणी से
तुम करते संस्कृति-परित्राण ।
मेरी संस्कृति के विश्वकोश
के निर्माता जनकवि उदार,
ओ भाषा के सम्राट, राष्ट्र
के गर्व, भक्तिपीयूषधार !
अचरज होता, तुम मानव थे,
तन में था यह ही अस्थि-चाम !
ओ अमर संस्कृति के गायक
तुलसी ! तुमको शत-शत प्रणाम ।
कितने कृपालु तुम हम पर थे,
जनवाणी में गायन गाए !
सद्ज्ञान, भक्ति औ' कविता के
सब रस देकर मन सरसाए।
मानवता की सीमाओं को
दिखलाया अपने पात्रों में,
ब्रह्मत्व भर दिया महाकवे !
तुमने मानव के गात्रों में।
वसुधा पर स्वर्ग उतार दिया
मेरे स्रष्टा, ओ आप्तकाम !
ओ अमर संकृति के गायक
तुलसी! तुमको शत शत प्रणाम ।
-रामप्रसाद मिश्र
धर्मयुग, जुलाई 1958
[इसमें रचयिता का नाम आनंदशंकर लिखा था। रामप्रसाद मिश्र उन दिनों आनंदशंकर नाम से लिखते थे।]
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मेरे हिस्से का आसमान
मेरे हिस्से का आसमान
कुछ ज्यादा ही ऊँचा हो गया है,
और मैं बावरी बार-बार
उस ऊँचाई तक पहुँचने में
अपनी सारी ताकत लगा देती हूँ।
नहीं आ पाता आसमान का वह टुकड़ा
मेरे हाथ,
मालूम चला है
वह पहले से ही झपट लिया गया है,
अवसरवादियों और खुशामदियों के द्वारा
और अब मैंने आसमान की बुलंदियों को छोड़
अपनी जमीन पर ही बने रहने का फैसला ले लिया है।
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ज़िन्दगी को औरों की
ज़िन्दगी को औरों की ख़ातिर बना दिया
घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना दिया
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यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ
यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ
मगर सच में सँभलता जा रहा हूँ
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प्रिय तुम्हारी याद में
प्रिय तुम्हारी याद में यह दर्द का अभिसार कैसा,
आँसुओं के हार से ही प्रीत का सम्मान कैसा!
प्रेम का प्रतिदान कैसा!
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धीरे-धीरे प्यार बन गई
जाने कब की देखा-देखी, धीरे-धीरे प्यार बन गई
लहर-लहर में चाँद हँसा तो लहर-लहर गलहार बन गई
स्वप्न संजोती सी वे आँखें, कुछ बोलीं, कुछ बोल न पायीं
मन-मधुकर की कोमल पाखें, कुछ खोली, कुछ खोल न पायीं
एक दिवस मुसकान-दूत जब प्रणय पत्रिका लेकर आया
ज्ञात नहीं, तब उस क्षण मैंने, क्या-क्या खोया, क्या-क्या पाया
क्षण भर की मुसकान तुम्हारी, जीवन का आधार बन गई।
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