हिंदी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है। - मैथिलीशरण गुप्त।
गीत

गीतों में प्राय: श्रृंगार-रस, वीर-रस व करुण-रस की प्रधानता देखने को मिलती है। इन्हीं रसों को आधारमूल रखते हुए अधिकतर गीतों ने अपनी भाव-भूमि का चयन किया है। गीत अभिव्यक्ति के लिए विशेष मायने रखते हैं जिसे समझने के लिए स्वर्गीय पं नरेन्द्र शर्मा के शब्द उचित होंगे, "गद्य जब असमर्थ हो जाता है तो कविता जन्म लेती है। कविता जब असमर्थ हो जाती है तो गीत जन्म लेता है।" आइए, विभिन्न रसों में पिरोए हुए गीतों का मिलके आनंद लें।

Articles Under this Category

चलो कहीं पर घूमा जाए | गीत - आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)

चलो कहीं पर घूमा जाए,
थोड़ा मन हल्का हो जाए।
सबके, अपने-अपने ग़म हैं,
किस ग़म को कम आँका जाए।
...

जिंदगी | गीत - प्रभजीत सिंह

एक शाम जिंदगी तमाम हो गई
लेने को पहुंचे जो फरिश्ते
टूट गये सब नाते-रिश्ते,
फिर रोके कुछ रूक नहीं पाया,
हाथ किसी के कुछ नहीं आया
सब देखते रहे, यह बात खुले आम हो गई
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई
...

जीत जाएंगे - प्रिंस सक्सेना 
बंदिशों में ज़िन्दगी है,
हर तरफ मुश्किल बड़ी है,
स्वांस पर पहरा लगा है,
ये संभलने की घड़ी है।
हम नहीं इस दौर में आँसू बहाएंगे,
इक न इक दिन जीत जाएंगे॥

एक न एक दिन इस धरा पर 
एक नई शुरुआत होगी,
आसमां में देखना तुम फिर
सुकून की रात होगी,
दिल मे फिर विश्वास होगा
होंठ पे मुस्कान होगी,
गुनगुनाती बारिशों में
खुशियों की फिर तान होगी।
झूमकर नाचेंगे फिर हम मुस्कुरायेंगे
एक न एक दिन जीत जाएंगे॥

जो समय के साथ जीना
सीख लेगा वो जीएगा,
विष शिवा के जैसे पीना
सीख लेगा वो जीएगा,
वो जीएगा जो मनुजता
का सही उद्देश्य समझे,
वो जीएगा जो प्रकर्ति
का सही संदेश समझे। 
हम सभी मिलकर वही संदेश गाएंगे,
इक न इक दिन जीत जाएंगे॥

एक अंधी दौड़ में बस
हम तो दौड़े जा रहे थे,
क्या मनुजता क्या मधुरता
सब ही छोड़े जा रहे थे,
आदमी का आदमी से
प्यार था बस अर्थ का ही,
नेह के विश्वास के बंधन
को तोडे जा रहे थे।
हो नही ऐसा कभी सौगंध खाएंगे
एक न एक दिन जीत जाएंगे॥ 

--प्रिंस सक्सेना 
 ई-मेल : princegsaxena@gmail.com
...
धीरे-धीरे प्यार बन गई - नर्मदा प्रसाद खरे

जाने कब की देखा-देखी, धीरे-धीरे प्यार बन गई
लहर-लहर में चाँद हँसा तो लहर-लहर गलहार बन गई
स्वप्न संजोती सी वे आँखें, कुछ बोलीं, कुछ बोल न पायीं
मन-मधुकर की कोमल पाखें, कुछ खोली, कुछ खोल न पायीं
एक दिवस मुसकान-दूत जब प्रणय पत्रिका लेकर आया
ज्ञात नहीं, तब उस क्षण मैंने, क्या-क्या खोया, क्या-क्या पाया
क्षण भर की मुसकान तुम्हारी, जीवन का आधार बन गई।
...

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें