एक पतंग नीले आकाश में उड़ती हुई,
मेरे कमरे के ठीक सामने
खिड़की से दिखता एक पेड़,
अचानक पतंग कट कर
वहाँ अटक गयी।
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कविताएं
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कटी पतंग
हिंद को सलाम करें, शान के लिये
तीन रंग से बना है, ध्वज यहाँ खड़ा
शौर्य और शूरता से भव्य है बड़ा
और जिसे देखकर वीर कह उठा
सलाम हिंद केसरी, श्वेत और हरा
आरती और अर्चना, सम्मान के लिये
देश की आराधना और मान के लिये
हिंद को सलाम करें, शान के लिये
रात बीत ही गयी है, ये सुबह हुई
आज जीत ही बिछी है, देख तो सही
आज दिन नये को देखो तौलता आकाश
रात है गयी धरा से बोलता आकाश
राष्ट्र की है भावना, अभिमान के लिये
देश की आराधना और मान के लिये
हिंद को सलाम करें, शान के लिये
आज़ाद का गगन है ये सुखदेव की धरा
और भगत सिंह से है कौन सा बड़ा
लाख अत्याचार से ये कोई ना झुका
गांधी के हर सत्य में है राम ही छुपा
मुक्त हों हर वेदना से, प्राण दे दिये
देश की आराधना और मान के लिये
हिंद को सलाम करें, शान के लिये
सच में ये धरा मेरे किसान की भूमि
खेत ये खलिहान बलिदान की भूमि
क़लाम के प्रयोग और विज्ञान की भूमि
जय हिंद जय जवान के आह्वान की भूमि
जम्मू काशमीर और अंडमान की भूमि
शिलोंग, मिज़ोरम, राजस्थान की भूमि
राणा और शिवाजी के अटल आन की भूमि
वीरों के पानीपत की है मैदान की भूमि
सरहदों पे जागते जवान की भूमि
आरती में शंख और अजान की भूमि
बुद्ध की पदचाप और ध्यान की भूमि
कबीर के दोहो से भरे ज्ञान की भूमि
तुलसी ने करी साधना, जिस काम के लिये
ये भूमि मेरी वंदना, उस राम के लिये
देश की आराधना और मान के लिये
हिंद को सलाम करें, शान के लिये।
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एक पगले नास्तिक की प्रार्थना
मुझे क्षमा करना ईश्वर
मुझे नहीं मालूम कि तुम हो या नहीं
कितने ही धर्मग्रंथों में
कितनी ही आकृतियों और वेशभूषाओं में
नज़र आते हो तुम
यहाँ तक कि कुछ का कहना है
नहीं है तुम्हारा शरीर
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साल मुबारक!
जैसे सोच की कंघी में से
एक दंदा टूट गया
जैसे समझ के कुर्ते का
एक चीथड़ा उड़ गया
जैसे आस्था की आँखों में
एक तिनका चुभ गया
नींद ने जैसे अपने हाथों में
सपने का जलता कोयला पकड़ लिया
नया साल कुझ ऐसे आया…
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जो दीप बुझ गए हैं
जो दीप बुझ गए हैं
उनका दु:ख सहना क्या,
जो दीप, जलाओगे तुम
उनका कहना क्या,
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मैं करती हूँ चुमौना
कोहरे की ओढ़नी से झांकती है
संकुचित-सी वर्ष की पहली सुबह यह
स्वप्न और संकल्प भर कर अंजुरी में
इस उनींदी भोर का स्वागत,
मैं करती हूँ चुमौना।
इस बरस के ख्वाब हों पूरे सभी
बदनजर इनको न लग जाए कभी
दोपहर की धूप में काजल मिलाकर
मैं लगाती हूँ सुनहरे साल के
गाल पर काला डिठौना।
फिर वही बच्चों की मोहक टोलियां हों
बाग में रूठें, मनाएं, जोड़ियां हों
पंछियों के साथ मिलकर चहचहाए
राह देखे शाम लेकर
घास का कोमल बिछौना।
गत बरस तो बीत घूंघट में गया
इस बरस का चांद दूल्हे-सा सजा
ले कुंआरे स्वप्न गर्वीला खड़ा है
प्रेम से मनमत्त है आतुर, करा लाने को गौना।
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उपस्थिति
व्याकरणाचार्यों से दीक्षा लेकर नहीं
कोशकारों के चेले बनकर भी नहीं
इतिहास से भीख माँगकर तो कतई नहीं
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जड़ें
जड़ों में गढ़ के पड़े रहने से
नवांकुर नहीं फूटते
जैसे जागने पर स्वप्न नहीं टूटते
वह तो टूटा करते हैं
सोने से !
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इस महामारी में
इस महामारी में
घर की चार दिवारी में कैद होकर
जीने की अदम्य लालसा के साथ
मैं अभी तक जिंदा हूँ
और देख रहा हूँ
मौत के आंकड़ों का सच
सबसे तेज़
सबसे पहले की गारंटी के साथ।
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हे कविता
हे कविता!
हर रात सोते समय,
एक कविता को
सपने में आने के लिये प्रार्थना करती हूँ।
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