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 राखी | सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता | Rakhi Poem by Subhadra Kumari Chauhan
हिंदी जाननेवाला व्यक्ति देश के किसी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है। - देवव्रत शास्त्री।

राखी | कविता

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 सुभद्रा कुमारी

भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज ।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज ।।

लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ ।
भरत - भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ ।।

वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान ।
पढ़ते - पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान । ।

मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवायी ।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी - बन्द - शत्रु - भाई । ।

किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही
बँधकर यह रह जाती है ।।

देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाल ।।

हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज ।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज ।।

यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अंकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे ?


बहिने कई सिसकती हैं हा ।
सिसक न उनकी मिट पायी ।
लाज गँवायी, गाली पाई
तिस पर गोली भी खायी ।।

डर है कही न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा ।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा ।।

बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे
भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा-
करने दौड़े आओगे

यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो ।
आकर भैया, बहिन 'सुभद्रा'--
के कष्टों का भार हरो ।।

-सुभद्रा कुमारी चौहान
साभार - मुकुल तथा अन्य कविताएँ

[यह कविता अभी तक (1.8.2014) इंटरनेट पर प्रकाशित नहीं थी। यदि आप इसे यहाँ पढ़ने के पश्चात इसका प्रकाशन करना चाहें तो अवश्य करें किंतु 'भारत-दर्शन' का उल्लेख अवश्य करें ]

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