प्रेमचंद के एक मित्र थे देवनारायण द्विवेदी। उन्हें एक बार मुंबई की एक फ़िल्म कंपनी से बुलावा आया लेकिन वे किसी कारणवश जा नहीं पाए।
कुछ समय बाद प्रेमचंद को भी मायानगरी से बुलावा आया। प्रेमचंद की प्रेस घाटे में जा रही थी तो प्रेमचंद ने सोचा मुंबई में कमाए पैसे से वे प्रेस की डूबती नैया पार लगा सकते हैं। प्रेमचंद मुंबई चले गए लेकिन कुछ ही महीनों में वापस बनारस लौट आए।
प्रेमचंद से भेंट होने पर देवनारायण द्विवेदी ने पूछा, "भैयाजी, फ़िल्म का अनुभव कैसा रहा?"
प्रेमचंद ने बड़े गमगीन होकर जवाब दिया, "अच्छा हुआ, तुम नहीं गए। मैंने तो जले हृदय से जैनेंद्र को कई पत्र लिखे थे। मत पूछो, वहाँ का हाल क्या है। लेखक को हाथ की कठपुतली बनना होता है। वहाँ उसी लेखक का सम्मान है, जो स्वयं लेखक, डायरेक्टर और निर्माता भी है। वैसे वहाँ लेखकों का सम्मान नहीं। खासकर मुझ जैसे लेखक के लिए वहाँ के वातावरण में रहना नामुमकिन है। कला के नाम पर वहाँ नग्न-नृत्य देखा। प्रेम के नाम पर हत्याएँ और आत्महत्याएँ देखीं। दूर से वहाँ का जीवन जितना ही प्रकाशमय प्रतीत होता हो, समीप से उतना ही घृणास्पद और अंधकारमय है। व्यभिचार की आत्मा वहाँ खुलकर खेलती है। किसी तरह भाग आया, चलो गनीमत है। जैसे सभी लोग संघर्ष कर रहे हैं, मैं भी करूँगा। ज़िन्दगी गुज़र ही जाएगी।"
प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी'