कहानियां

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उसकी माँ

- पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'

दोपहर को ज़रा आराम करके उठा था। अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में खड़ा-खड़ा धीरे-धीरे सिगार पी रहा था और बड़ी-बड़ी अलमारियों में सजे पुस्तकालय की ओर निहार रहा था। किसी महान लेखक की कोई कृति उनमें से निकालकर देखने की बात सोच रहा था। मगर, पुस्तकालय के एक सिरे से लेकर दूसरे तक मुझे महान ही महान नज़र आए। कहीं गेटे, कहीं रूसो, कहीं मेज़िनी, कहीं नीत्शे, कहीं शेक्सपीयर, कहीं टॉलस्टाय, कहीं ह्यूगो, कहीं मोपासाँ, कहीं डिकेंस, सपेंसर, मैकाले, मिल्टन, मोलियर---उफ़! इधर से उधर तक एक-से-एक महान ही तो थे! आखिर मैं किसके साथ चंद मिनट मनबहलाव करूँ, यह निश्चय ही न हो सका, महानों के नाम ही पढ़ते-पढ़ते परेशान सा हो गया।
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दुनिया का सबसे अनमोल रत्न

- मुंशी प्रेमचंद

दिलफ़िगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह सौन्दर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देने वाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक के वेश में माशूक़ियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फ़िदाइयों में जो जंगल और पहाड़ों से सर टकराते हैं और फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा और दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ तब मैं तुझे अपनी गुलामी में क़बूल करूँगी। अगर तुझे वह चीज़ न मिले तो ख़बरदार इधर रुख़ न करना, वर्ना सूली पर खिंचवा दूँगी। दिलफ़िगार को अपनी भावनाओं के प्रदर्शन का, शिकवे-शिकायत का, प्रेमिका के सौन्दर्य-दर्शन का तनिक भी अवसर न दिया गया। दिलफ़रेब ने ज्यों ही यह फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। और आज तीन दिन से यह आफ़त का मारा आदमी उसी कँटीले पेड़ के नीचे उसी भयानक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ। दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ मुझको मिलेगी? नामुमकिन! और वह है क्या? क़ारूँ का ख़जाना? आबे हयात? खुसरो का ताज? जामे-जम? तख्तेताऊस? परवेज़ की दौलत? नहीं, यह चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे भी महँगी, इनसे भी अनमोल चीज़ें मौजूद हैं मगर वह क्या हैं। कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या खुदा, मेरी मुश्किल क्योंकर आसान होगी?
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शेख़ मख़मूर

- मुंशी प्रेमचंद

मुल्के जन्नतनिशाँ के इतिहास में बहुत अँधेरा वक़्त था जब शाह किशवर की फ़तहों की बाढ़ बड़े ज़ोर-शोर के साथ उस पर आयी। सारा देश तबाह हो गया। आज़ादी की इमारतें ढह गयीं और जानोमाल के लाले पड़ गये। शाह बामुराद खूब जी तोडक़र लड़ा, खूब बहादुरी का सबूत दिया और अपने ख़ानदान के तीन लाख़ सूरमाओं को अपने देश पर चढ़ा दिया मगर विजेता की पत्थर काट देने वाली तलवार के मुक़ाबले में उसकी यह मर्दाना जाँबाजि़याँ बेअसर साबित हुईं। मुल्क पर शाह किशवरकुशा की हुकूमत का सिक्का जम गया और शाह बामुराद अकेला और तनहा बेयारो मददगार अपना सब कुछ आज़ादी के नाम पर कुर्बान करके एक झोंपड़े में जि़न्दगी बसर करने लगा।
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यही मेरा वतन

- मुंशी प्रेमचंद

आज पूरे साठ बरस के बाद मुझे अपने वतन, प्यारे वतन का दर्शन फिर नसीब हुआ। जिस वक़्त मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ और क़िस्मत मुझे पच्छिम की तरफ़ ले चली, मेरी उठती जवानी थी। मेरी रगों में ताज़ा खून दौड़ता था और सीना उमंगों और बड़े-बडें़ इरादों से भरा हुआ था। मुझे प्यारे हिन्दुस्तान से किसी ज़ालिम की सख़्तियों और इंसाफ़ के ज़बर्दस्त हाथों ने अलग नहीं किया था। नहीं, ज़ालिम का जुल्म और क़ानून की सख्तियाँ मुझसे जो चाहें करा सकती हैं मगर मेरा वतन मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं। यह मेरे बुलन्द इरादे और बड़े-बड़े मंसूबे थे जिन्होंने मुझे देश निकाला दिया। मैंने अमरीका में खूब व्यापार किया, खूब दौलत कमायी और खूब ऐश किये। भाग्य से बीवी भी ऐसी पायी जो अपने रूप में बेजोड़ थी, जिसकी खूबसूरती की चर्चा सारे अमरीका में फैली हुयी थी और जिसके दिल में किसी ऐसे ख़याल की गुंजाइश भी न थी जिसका मुझसे सम्बन्ध न हो। मैं उस पर दिलोजान से न्योछावर था और वह मेरे लिए सब कुछ थी। मेरे पाँच बेटे हुए, सुन्दर,हृष्ट-पुष्ट और नेक, जिन्होंने व्यापार को और भी चमकाया और जिनके भोले,नन्हें बच्चे उस वक़्त मेरी गोद में बैठे हुए थे जब मैंने प्यारी मातृभूमि का अन्तिम दर्शन करने के लिए क़दम उठाया। मैंने बेशुमार दौलत, वफ़ादार बीवी, सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े, ऐसी-ऐसी अनमोल नेमतें छोड़ दीं। इसलिए कि प्यारी भारतमाता का अन्तिम दर्शन कर लूँ। मैं बहुत बुड्ढा हो गया था। दस और हों तो पूरे सौर बरस का हो जाऊँ, और अब अगर मेरे दिल में कोई आरजू बाक़ी है तो यही कि अपने देश की ख़ाक में मिल जाऊँ। यह आरजू कुछ आज ही मेरे मन में पैदा नहीं हुई है, उस वक़्त भी थी जब कि मेरी बीवी अपनी मीठी बातों और नाज़ुक अदाओं से मेरा दिल खुश किया करती थी। जबकि मेरे नौजवान बेटे सबेरे आकर अपने बूढ़े बाप को अदब से सलाम करते थे, उस वक़्त भी मेरे जिगर में एक काँटा-सा खटकता था और वह काँटा यह था कि मैं यहाँ अपने देश से निर्वासित हूँ। यह देश मेरा नहीं है, मैं इस देश का नहीं हूँ। धन मेरा था, बीवी मेरी थी, लड़के मेरे थे और जायदादें मेरी थीं, मगर जाने क्यों मुझे रह रहकर अपनी मातृभूमि के टूटे-फूटे झोंपड़े, चार छ: बीघा मौरूसी ज़मीन और बचपन के लंगोटिया यारों की याद सताया करती थी और अक्सर खुशियों की धूमधाम में भी यह ख़याल चुटकी लिया करता कि काश अपने देश में होता!
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शोक का पुरस्कार

- मुंशी प्रेमचंद

आज तीन दिन गुज़र गये। शाम का वक्त था। मैं युनिवर्सिटी हॉल से खुश-खुश चला आ रहा था। मेरे सैकड़ों दोस्त मुझे बधाइयाँ दे रहे थे। मारे खुशी के मेरी बाँछें खिली जाती थीं। मेरी जिन्दगी की सबसे प्यारी आरजू कि मैं एम०ए० पास हो जाऊँ, पूरी हो गयी थी और ऐसी खूबी से जिसकी मुझे तनिक भी आशा न थी। मेरा नम्बर अव्वल था। वाइस चान्सलर साहब ने खुद मुझसे हाथ मिलाया था और मुस्कराकर कहा था कि भगवान तुम्हें और भी बड़े कामों की शक्ति दे। मेरी खुशी की कोई सीमा न थी। मैं नौजवान था, सुन्दर था, स्वस्थ था, रुपये-पैसे की न मुझे इच्छा थी और न कुछ कमी, माँ-बाप बहुत कुछ छोड़ गये थे। दुनिया में सच्ची खुशी पाने के लिए जिन चीज़ों की ज़रूरत है, वह सब मुझे प्राप्त थीं। और सबसे बढक़र पहलू में एक हौसलामन्द दिल था जो ख्याति प्राप्त करने के लिए अधीर हो रहा था।
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सांसारिक प्रेम और देश प्रेम

- मुंशी प्रेमचंद

शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहाँ शाम ही से अँधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आँख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैजि़नी ख़ामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं, और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजि़नी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्ही अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के गुलाम होकर ज़लील से ज़लील काम करते हैं।
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जन्मभूमि

- देवेन्द्र सत्यार्थी

गाड़ी हरबंसपुरा के स्टेशन पर खड़ी थी। इसे यहाँ रुके पचास घंटे से ऊपर हो चुके थे। पानी का भाव पाँच रुपये गिलास से एकदम पचास रुपये गिलास तक चढ गया और पचास रुपये हिसाब से पानी खरीदते समय लोगों को बडी नरमी से बात करनी पडती थी । वे डरते थे कि पानी का भाव और न चढ जाएे । कुछ लोग अपने दिल को तसल्ली दे रहे थे कि जो इधर हिन्दुओं पर बीत रही है वही उधर मुसलमानों पर भी बीत रही होगी, उन्हें पानी इससे सस्ते भाव पर नहीं मिल रहा होगा, उन्हें भी नानी याद आ रही होगी।
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सांसारिक प्रेम और देश प्रेम

- मुंशी प्रेमचंद

शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहाँ शाम ही से अँधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आँख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैजि़नी ख़ामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं, और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजि़नी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्ही अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के गुलाम होकर ज़लील से ज़लील काम करते हैं।
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दुनिया का सबसे अनमोल रत्न

- मुंशी प्रेमचंद

दिलफ़िगार एक कँटीले पेड़ के नीचे दामन चाक किये बैठा हुआ खून के आँसू बहा रहा था। वह सौन्दर्य की देवी यानी मलका दिलफ़रेब का सच्चा और जान देने वाला प्रेमी था। उन प्रेमियों में नहीं, जो इत्र-फुलेल में बसकर और शानदार कपड़ों से सजकर आशिक के वेश में माशूक़ियत का दम भरते हैं। बल्कि उन सीधे-सादे भोले-भाले फ़िदाइयों में जो जंगल और पहाड़ों से सर टकराते हैं और फ़रियाद मचाते फिरते हैं। दिलफ़रेब ने उससे कहा था कि अगर तू मेरा सच्चा प्रेमी है, तो जा और दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ लेकर मेरे दरबार में आ तब मैं तुझे अपनी गुलामी में क़बूल करूँगी। अगर तुझे वह चीज़ न मिले तो ख़बरदार इधर रुख़ न करना, वर्ना सूली पर खिंचवा दूँगी। दिलफ़िगार को अपनी भावनाओं के प्रदर्शन का, शिकवे-शिकायत का, प्रेमिका के सौन्दर्य-दर्शन का तनिक भी अवसर न दिया गया। दिलफ़रेब ने ज्यों ही यह फ़ैसला सुनाया, उसके चोबदारों ने ग़रीब दिलफ़िगार को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। और आज तीन दिन से यह आफ़त का मारा आदमी उसी कँटीले पेड़ के नीचे उसी भयानक मैदान में बैठा हुआ सोच रहा है कि क्या करूँ। दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ मुझको मिलेगी? नामुमकिन! और वह है क्या? क़ारूँ का ख़जाना? आबे हयात? खुसरो का ताज? जामे-जम? तख्तेताऊस? परवेज़ की दौलत? नहीं, यह चीज़ें हरगिज़ नहीं। दुनिया में ज़रूर इनसे भी महँगी, इनसे भी अनमोल चीज़ें मौजूद हैं मगर वह क्या हैं। कहाँ हैं? कैसे मिलेंगी? या खुदा, मेरी मुश्किल क्योंकर आसान होगी?
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