रोज़ सुबह, मुँह-अंधेरे
दूध बिलोने से पहले
माँ
चक्की पीसती,
और मैं
घुमेड़े में
आराम से
सोता।
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कविताएं
इस श्रेणी के अंतर्गत
माँ
माँ कह एक कहानी
"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"
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मैं और कुछ नहीं कर सकता था
मैं क्या कर सकता था
किसी का बेटा मर गया था
सांत्वना के दो शब्द कह सकता था
किसी ने कहा बाबू जी मेरा घर बाढ़ में बह गया
तो उस पर यकीन करके उसे दस रुपये दे सकता था
किसी अंधे को सड़क पार करा सकता था
रिक्शावाले से भाव न करके उसे मुंहमांगा दाम दे सकता था
अपनी कामवाली को दो महीने का एडवांस दे सकता था
दफ्तर के चपरासी की ग़लती माफ़ कर सकता था
अमेरिका के खिलाफ नारे लगा सकता था
वामपंथ में अपना भरोसा फिर से ज़ाहिर कर सकता था
वक्तव्य पर दस्तख़त कर सकता था
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सवाल
ईश्वर से पूछा गया कि उन्हें कौन-सा मौसम अच्छा लगता है-ठंड का, गर्मी का या बरसात का?
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माँ | कविता
माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रुबाई-सी
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अशेष दान
किया है तुमने मुझे अशेष, तुम्हारी लीला यह भगवान!
रिक्त कर-कर यह भंगुर पात्र, सदा करते नवजीवन दान॥
लिए करमें यह नन्हीं वेणु, बजाते तुम गिरि-सरि-तट धूम।
बहे जिससे नित नूतन तान, भरा ऐसा कुछ इसमें प्राण॥
तुम्हारा पाकर अमृत-स्पर्श, पुलकता उर हो सीमाहीन।
फूट पड़ती वाणी से सतत, अनिर्वचनीय मनोरम तान॥
इसी नन्ही मुट्ठी में मुझे, दिए हैं तुमने निशिदिन दान।
गए हैं देते युग-युग बीत, यहाँ रहता है फिर भी स्थान॥
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नन्ही सचाई
एक डॉक्टर मित्र हमारे
स्वर्ग सिधार।
कोरोना से मर गए,
सांत्वना देने
हम उनके घर गए।
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रवि
अस्त हो गया है तप-तप कर प्राची, वह रवि तेरा।
विश्व बिलखता है जप-जपकर, कहाँ गया रवि मेरा?
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अकेला चल | रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविता
अनसुनी करके तेरी बात, न दे जो कोई तेरा साथ
तो तुही कसकर अपनी कमर अकेला बढ़ चल आगे रे।
अरे ओ पथिक अभागे रे।
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इस महामारी में
इस महामारी में
घर की चार दिवारी में कैद होकर
जीने की अदम्य लालसा के साथ
मैं अभी तक जिंदा हूं
और देख रहा हूं
मौत के आंकड़ों का सच
सबसे तेज़
सबसे पहले की गारंटी के साथ ।
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चाह
चाह नहीं मुझको सुनने की,
मोहन की बंसी की तान,
क्या होगा उसको सुन सुनकर;
भूखे भक्ति नहीं भगवान!
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