जन-जन ने हैं दीप जलाए
लाखों और हजारों ही
धरती पर आकाश आ गया
सेना लिए सितारों की
छुप गई हर दीपक के नीचे
देखो आज अमावस काली
सुंदर-सुंदर दीपों वाली
झिलमिल आई है दीवाली
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कविताएं
इस श्रेणी के अंतर्गत
झिलमिल आई है दीवाली
प्रभु ईसा
मूर्तिमती जिनकी विभूतियाँ
जागरूक हैं त्रिभुवन में;
मेरे राम छिपे बैठे हैं
मेरे छोटे-से मन में;
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रिसती यादें
दोस्तों के साथ बिताए लम्हों की
याद दिलाते
कई चित्र आज भी
पुरानी सी. डी. में धूल के नीचे
मात खाकर
दराज़ के किसी कोने में
चुप-चाप सोये हुए हैं।
दबी यादें हवा के झोंकों के साथ
मस्तिष्क तक आकर रुक जातीं,
कुछ यादें अभी भी ताज़ा हैं
कुछ धूमिल हो गईं
समय के साथ,
दोस्त तो अब भी मिलते हैं
पेज को लाइक करने वाले
फोटो पर कमेंट करने वाले
स्टेटस पर जोक करने वाले।
नए दोस्त भी मिले
तारीफ करने वाले,
तारीफ भरे शब्दों के साथ
स्माइलीज़ को मुंह पर चिपकाए
घण्टों चैट पर ठहाके लगाने वाले।
अब नहीं मिलते वे दोस्त
लेकिन ... अब नहीं मिलते!
नज़रें बार-बार
उसी दराज़ तक जाकर
रुक जातीं
दोस्ती की उन यादों पर
धूल अभी भी जमी है,
परतें इतनी कि
नहीं दिखते वे दोस्त अब
वे दोस्त ...
जिनके मन की बात को जानने के लिए
स्माइलीज़ की ज़रूरत नहीं पड़ती
अपनी दोस्ती की गहराई दिखाने के लिए
लाइक
कमेंट
की ज़रूरत नहीं पड़ती
एक सेकंड के लॉग इन के फासले पर
बैठे दोस्त...
अब नहीं मिलते वे दोस्त
अब नहीं मिलते।
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दीवाली : हिंदी रुबाइयां
सब ओर ही दीपों का बसेरा देखा,
घनघोर अमावस में सवेरा देखा।
जब डाली अकस्मात नज़र नीचे को,
हर दीप तले मैंने अँधेरा देखा।।
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दिवाली के दिन | हास्य कविता
''तुम खील-बताशे ले आओ,
हटरी, गुजरी, दीवट, दीपक।
लक्ष्मी - गणेश लेते आना,
झल्लीवाले के सर पर रख।
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कवि आज सुना वह गान रे
कवि आज सुना वह गान रे,
जिससे खुल जाएँ अलस पलक।
नस-नस में जीवन झंकृत हो,
हो अंग-अंग में जोश झलक।
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मधुर-मधुर मेरे दीपक जल
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर।
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दीपक जलाना कब मना है
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों, को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।
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दिवाली वर्णन
सरस दरस की दिवाली मान आजम खाँ,
राजत मनोज की निकाई निदरत हैं।
जगर मगर दिसा दीपन सो कर राखी,
तिनै पेखि दुजन पतंग पजरत हैं।
छूटत छबीली हथ-फूलन कों बृंद तामें,
ताकी दुति देखि हिये आनंद भरत हैं।
सो छबि अनंद मानों पावक प्रताप तरु,
फूल्यो ताकै चहुंघा तै फूल ये झरत हैं॥
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लौट रहा हूँ गांव
चलो ये शहर तुम्हारे नाम करता हूँ,
यहां के लोग मेरे हुए,
सारे पेड़ तुम्हारे, पंछी सारे मेरे हुए,
तुमको तुम्हारा शहर मुबारक,
मैं अपनों के संग लौट रहा हूँ गांव
अब तुम अकेले हो, ऐश्वर्य से भरपूर अपने शहर में,
लकदक रौशनी जगमग हैं चारों ओर
और सड़कें खामोश हैं, पेड़ मौन,
तीन दिन हो गए दुलारे के चूल्हे से धुआं निकले,
वहां बस राख है,
चाय के लिए शोर मचाने वाले सब गांव में हैं,
मंदिर की घंटियां, मस्जिद का लाउडस्पीकर बेजान सा है चुप्प
गांव के मंदिर में अष्टजाम हो रहा है उधर मस्जिद में अजान,
शहर की पूरी आत्मा गांव में धड़क रही है,
इधर शहर में ऐशो-आराम के बीच तुम अकेले हो बेचैन से,
हवा गुजर रही है सांय-सांय,
चांदनी तो है पर पड़ोस की चंदा नहीं
जो लोरी गाकर सुनाती थी अपने मोहन को,
रहमान भी नहीं, जो पीछे से टोक देता था तुम्हे,
पूछता था और कैसे हो भाई,
तुम बदहवास से हो, निढाल पड़े हुए,
तुम्हारी रोशनी का दरवाजा अंधेरे की ओर खुल रहा है,
तुम जागते हो और भागते हो गांव की ओर,
लिपट जाते हो दुलारे से और रहमान से,
चंदा से कहते हो लौट आओ,
तुम्हारी आंखें खुलीं हैं,
तुम समझ गए हो आदमी का महत्व।
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दीवाली का सामान
हर इक मकां में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिन में समां भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मजा खुश लगा दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का।
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