माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रुबाई-सी।
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
माँ
कबीर दोहे -2
(21)
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
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हास्य दोहे | काका हाथरसी
अँग्रेजी से प्यार है, हिंदी से परहेज,
ऊपर से हैं इंडियन, भीतर से अँगरेज
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मेरा शीश नवा दो - गीतांजलि
मेरा शीश नवा दो अपनी
चरण-धूल के तल में।
देव! डुबा दो अहंकार सब
मेरे आँसू-जल में।
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल
ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
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अमिता शर्मा की क्षणिकाएं
कवि
कवि तुम
कुम्हार हो क्या?
धरते रहते हो चाक पर
अपनी पराई पीड़ाएं
और गढ़ जाती हैं
कविताएं ।
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सूर्यभानु गुप्त की तीन त्रिपदियाँ
( 1)
पड़ा है रात का सपना अभी वहीं का
वही
जिस आधी रात में, हमको मिली थी
आजादी
उस आधी रात की किस्मत में सहर है
कि नहीं।
(2)
कुर्सियाने के नये तौर निकल आते हैं
अब तो लगता है, किसी से न मरेगा
रावण,
एक सिर काटिए, सौ और निकल
आते हैं।
(3)
इंतजार और अभी दोस्तो करना होगा,
रामलीला जरा कलियुग में खिंचेगी
लंबी,
लेकिन यह तय है कि रावाग को तो
मरना होगा।
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कबीर भजन
उमरिया धोखे में खोये दियो रे।
धोखे में खोये दियो रे।
पांच बरस का भोला-भाला
बीस में जवान भयो।
तीस बरस में माया के कारण,
देश विदेश गयो। उमर सब ....
चालिस बरस अन्त अब लागे, बाढ़ै मोह गयो।
धन धाम पुत्र के कारण, निस दिन सोच भयो।।
बरस पचास कमर भई टेढ़ी, सोचत खाट परयो।
लड़का बहुरी बोलन लागे, बूढ़ा मर न गयो।।
बरस साठ-सत्तर के भीतर, केश सफेद भयो।
वात पित कफ घेर लियो है, नैनन निर बहो।
न हरि भक्ति न साधो की संगत,
न शुभ कर्म कियो।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,
चोला छुट गयो।।
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कबीर दोहे -3
(41)
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
(42)
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
(43)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
(44)
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥
(45)
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
(46)
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
(47)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(48)
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
(49)
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
(50)
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥
गुरू महिमा पर कबीर दोहे (Kabir Dohe on Guru)
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कबीर की हिंदी ग़ज़ल
क्या कबीर हिंदी के पहले ग़ज़लकार थे? यदि कबीर की निम्न रचना को देखें तो कबीर ने निसंदेह ग़ज़ल कहीं है:
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कबीर वाणी
माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो
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कबीर के दोहे | Kabir's Couplets
कबीर के दोहे सर्वाधिक प्रसिद्ध व लोकप्रिय हैं। हम कबीर के अधिक से अधिक दोहों को संकलित करने हेतु प्रयासरत हैं।
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कबीर की कुंडलियां - 1
गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो दिखाय
गोविन्द दियो दिखाय ज्ञान का है भण्डारा
सत मारग पर पांव अपन गुरु ही ने डारा
गोबिन्द लियो बिठाय हिये खुद गुरु के चरनन
माथा दीन्हा टेक कियो कुल जीवन अर्पन
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माँ कह एक कहानी
"माँ कह एक कहानी।"
बेटा समझ लिया क्या तूने मुझको अपनी नानी?"
"कहती है मुझसे यह चेटी, तू मेरी नानी की बेटी
कह माँ कह लेटी ही लेटी, राजा था या रानी?
माँ कह एक कहानी।"
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माँ पर दोहे | मातृ-दिवस
जब तक माँ सिर पै रही बेटा रहा जवान।
उठ साया जब तै गया, लगा बुढ़ापा आन॥
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फैशन | हास्य कविता
कोट, बूट, पतलून बिना सब शान हमारी जाती है,
हमने खाना सीखा बिस्कुट, रोटी नहीं सुहाती है ।
बिना घड़ी के जेब हमारी शोभा तनिक न पाती है,
नाक कटी है नकटाई से फिर भी लाज न आती है ।
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नैराश्य गीत | हास्य कविता
कार लेकर क्या करूँगा?
तंग उनकी है गली वह, साइकिल भी जा न पाती ।
फिर भला मै कार को बेकार लेकर क्या करूँगा?
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अभिमन्यु | क्षणिका
जब जब लड़ा अभिमन्यु
हर बार वही हारा है
अपनो ने नहीं दिया साथ
गैरों ने छल से मारा है
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शानदार | क्षणिका
खाना शानदार
रहना शानदार
भाषण शानदार
श्रोता शानदार
बात इतनी थी
तुम थे तमाशबीन
वे थे दुकानदार
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दिन अँधेरा-मेघ झरते | रवीन्द्रनाथ ठाकुर
यहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना "मेघदूत' के आठवें पद का हिंदी भावानुवाद (अनुवादक केदारनाथ अग्रवाल) दे रहे हैं। देखने में आया है कि कुछ लोगो ने इसे केदारनाथ अग्रवाल की रचना के रूप में प्रकाशित किया है लेकिन केदारनाथ अग्रवाल जी ने स्वयं अपनी पुस्तक 'देश-देश की कविताएँ' के पृष्ठ 215 पर नीचे इस विषय में टिप्पणी दी है।
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चल तू अकेला! | रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो तू चल अकेला,
चल अकेला, चल अकेला, चल तू अकेला!
तेरा आह्वान सुन कोई ना आए, तो चल तू अकेला,
जब सबके मुंह पे पाश..
ओरे ओरे ओ अभागी! सबके मुंह पे पाश,
हर कोई मुंह मोड़के बैठे, हर कोई डर जाय!
तब भी तू दिल खोलके, अरे! जोश में आकर,
मनका गाना गूंज तू अकेला!
जब हर कोई वापस जाय..
ओरे ओरे ओ अभागी! हर कोई बापस जाय..
कानन-कूचकी बेला पर सब कोने में छिप जाय...
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तेरा हाल मुझसे
तेरा हाल मुझसे जो पूछा किसी ने
न मैं बोल पाया ना तू अब रही है
न घर-घर लगे है ना दिल ही थमे है
कि जिस रोज से माँ मेरी चल बसी है
अभी आ रही हैं तुम्हारी सदाएं
यहीं पर कहीं पर तू जैसे खड़ी है
न उसने बुलाया ना आवाज़ ही दी
पता तब चला घर में माँ ना रही है
-रोहित कुमार 'हैप्पी'
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लोगे मोल? | कविता
लोगे मोल?
लोगे मोल?
यहाँ नहीं लज्जा का योग
भीख माँगने का है रोग
पेट बेचते हैं हम लोग
लोगे मोल?
लोगे मोल?
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भावना चंद की तीन कविताएं
उम्मीद
दिन भर की दौड़ धूप ...
के बाद....
जब ढूंढ़ती हूँ...
खुद को...
तो पाती हूँ ..
गलती का ढेर ....
कि ...देख मुझे निराश...
थपथपा देता हैं कोई पीठ...
कि देख पाई थी मै
वो थी उम्मीद...
हाँ ...हज़ार गलती पर भी...
मुस्कुराई थी तुम...
निरंतर / बेवजह...
इसी उम्मीद पर...
कि...कल कुछ बेहतर होगा..
गलती का ढेर होगा....
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आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?
आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?
जिंदगी जीने से डरते हैं क्यों ?
फंदे पर लटककर झूले
जीवन है अनमोल ये भूले।
अपनों को देकर तो आंसू,
छोड़ दिए दुनिया में अकेले।
कभी ट्रेन के आगे आना,
कभी ज़हर को लेकर खाना।
कभी मॉल से छलांग लगा दी,
देते हैं वो खुद को आज़ादी।
इस आज़ादी के ख़ातिर वो,
अपनों को देते तकलीफ़
लोग हसंते ऐसी करतूतों पर,
करते नही हैं वो तारीफ़।
पिता के दिल का हाल ना पूछों,
माता पर गुजरी है क्या
इक छोटी सी कठिनाई के ख़ातिर,
क्यों कदम इतना बड़ा लिया उठा।
पुलिस आई है घर पर तेरे,
कर रही सबकों परेशान,
ख़ुद चला गया दुनिया से,
अपनों को किया परेशान।
संतुष्ठि मिल गई है तुमको
अपनी जान तो देकर के,
हाल बुरा है उनका देखो,
बड़ा किया जिसने पाल-पोसकर के।
जिंदगी की सच्चाई में क्यों?
इतना जल्दी हार गए।
आखिर मज़बूरी है क्या?
दुनिया के उस पार गए।
याद नही आई अपनों की,
करते हुए तो ऐसा काम,
क्या बीतेगी सोचते अगर,
नही देते इसकों अंजाम।
दुख का छाया, क्या है अकेले तुम पर
जो हो गए इतना मजबूर
औरों के दुख को भी देखो,
जख्म बन गए हैं नासूर।
हर समस्या का कभी तो,
समाधान भी निकलेगा।
ऊपर बैठा देख रहा जो,
उसका दिल भी पिघलेगा।
बुद्धदिली कहें इसे,
या कायरता कहकर पुकारें,
छोड़ रहे दुनिया को क्यों ?
और भी हैं जीने के सहारे।
कठिनाइयों से डरते हैं क्यों?
आख़िर खुदकुशी करते हैं क्यों ?
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बात हम मस्ती में ऐसी कह गए | ग़ज़ल
बात हम मस्ती में ऐसी कह गए,
होश वाले भी ठगे से रह गए।
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बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से
बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से
इस दुनिया के लोग बना लेते हैं परबत राई से।
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नानी वाली कथा-कहानी
नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुई पुरानी।
बेटी-युग के नए दौर की, आओ लिख लें नई कहानी।
बेटी-युग में बेटा-बेटी,
सभी पढ़ेंगे, सभी बढ़ेंगे।
फौलादी ले नेक इरादे,
खुद अपना इतिहास गढ़ेंगे।
देश पढ़ेगा, देश बढ़ेगा, दौड़ेगी अब, तरुण जवानी।
नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी।
बेटा शिक्षित, आधी शिक्षा,
दोनों शिक्षित पूरी शिक्षा।
हमने सोचा,मनन करो तुम,
सोचो समझो करो समीक्षा।
सारा जग शिक्षामय करना,हमने सोचा मन में ठानी।
नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी।
अब कोई ना अनपढ़ होगा,
सबके हाथों पुस्तक होगी।
ज्ञान-गंग की पावन धारा,
सबके आँगन तक पहुँचेगी।
पुस्तक और कलम की शक्ति,जग जाहिर जानी पहचानी।
नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुईं पुरानी।
बेटी-युग सम्मान-पर्व है,
पुर्ण्य-पर्व है, ज्ञान-पर्व है।
सब सबका सम्मान करे तो,
जन-जन का उत्थान-पर्व है।
सोने की चिड़िया तब बोले,बेटी-युग की हवा सुहानी।
नानी वाली कथा-कहानी, अब के जग में हुई पुरानी।
बेटी-युग के नए दौर की, आओ लिख लें नई कहानी।
- आनन्द विश्वास
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आज भी खड़ी वो...
निराला की कविता, 'तोड़ती पत्थर' को सपना सिंह (सोनश्री) आज के परिवेश में कुछ इस तरह से देखती हैं:
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तितली | बाल कविता
रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को भाते हैं।
कलियाँ देख तुम्हें खुश होतीं फूल देख मुसकाते हैं।।
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नहीं है आदमी की अब | हज़ल
नहीं है आदमी की अब कोई पहचान दिल्ली में
मिली है धूल में कितनों की ऊँची शान दिल्ली में
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