माँ कबीर की साखी जैसी
तुलसी की चौपाई-सी
माँ मीरा की पदावली-सी
माँ है ललित रुबाई-सी।
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
माँ
सुख-दुख | कविता
मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !
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मैं दिल्ली हूँ - एक | कविता
मैं दिल्ली हूँ मैंने कितनी, रंगीन बहारें देखी हैं।
अपने आँगन में सपनों की, हर ओर कितारें देखीं हैं॥
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आराम करो | हास्य कविता
एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटांक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
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प्यारा वतन | कविता
(1)
प्यारे वतन हमारे प्यारे,
आजा, आजा, पास हमारे ।
या तू अपने पास बुलाकर,
रख छाती से हमें लगाकर ॥
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है | ग़ज़ल
ज़रा सा क़तरा कहीं आज गर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
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कभी कभी खुद से बात करो | कवि प्रदीप की कविता
कभी कभी खुद से बात करो, कभी खुद से बोलो ।
अपनी नज़र में तुम क्या हो? ये मन की तराजू पर तोलो ।
कभी कभी खुद से बात करो ।
कभी कभी खुद से बोलो ।
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कबीर दोहे -3
(41)
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय॥
(42)
गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।
बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि॥
(43)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार॥
(44)
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि॥
(45)
शब्द गुरु का शब्द है, काया का गुरु काय।
भक्ति करै नित शब्द की, सत्गुरु यौं समुझाय॥
(46)
बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाडी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार।।
(47)
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
(48)
जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय।
सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय॥
(49)
यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
(50)
गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव॥
गुरू महिमा पर कबीर दोहे (Kabir Dohe on Guru)
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किसी के दुख में .... | ग़ज़ल
किसी के दुख में रो उट्ठूं कुछ ऐसी तर्जुमानी दे
मुझे सपने न दे बेशक, मेरी आंखों को पानी दे
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मैं रहूँ या न रहूँ | ग़ज़ल
मैं रहूँ या न रहूँ, मेरा पता रह जाएगा
शाख़ पर यदि एक भी पत्ता हरा रह जाएगा
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आम आदमी
आज
आम आदमी
आम की तरह है,
जिसे
रईस चूसकर फेंक देते हैं,
और
गुठलीयों को जमीन में गाड़ देते हैं,
जिससे
फिर और आमों को चूसा जा सके।
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एक छलावा | कविता
बापू!
तुम मानव तो नहीं थे
एक छलावा थे
कर दिया था तुमने जादू
हम सब पर
स्थावर-जंगम, जड़-चेतन पर
तुम गए—
तुम्हारा जादू भी गया
और हो गया
एक बार फिर
नंगा।
यह बेईमान
भारती इनसान।
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मेरो दरद न जाणै कोय
हे री मैं तो प्रेम-दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।
घायल की गति घायल जाणै जो कोई घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय।
सूली ऊपर सेज हमारी सोवण किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय।
दरद की मारी बन-बन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय।
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युद्ध जारी है | कविता
युद्ध जारी है
सत्य का झूठ से
प्रकाश का अन्धकार से
जीवन का मृत्यु से
विकारों का अंतरात्मा से
अपराध का कारागार से
आदमी का अहंकार से |
तुमने भेज तो दिया मुझको
भाल पर विजय की कामना
का टीका लगा कर
भेज तो दिया चल रहे संग्राम
में कौशल दिखाने के लिए
बिला यह बतलाए कि
कौन अपना है कौन पराया
किससे युद्ध करना है किससे नहीं
पर में स्वयं से भी
युद्ध करने के लिए तैयार हूँ |
मेरे सामने महारथियों की भीड है
और मै बिलकुल अकेला हूँ
इस चक्रव्यूह में
अभिमन्यू की तरह सभी
मेरे कवच कुंडल टूट गए हैं
तलवार छूट गई हाथ से
धनुष की प्रत्यंचा कट गई है
सारथी और अश्व घायल हो गए हैं
किन्तु यह रक्त रंजित तन
और आहत मन अभी हारे नहीं है
विजय का परचम लिए
मैं फिर खडा हूँ युद्ध जारी है |
- शिवनारायण जौहरी विमल
विधि सचिव
24/डी. के. देवस्थली
दाना पानी रेस्तौरेंट के पास
अरेरा कॉलोनी
भोपाल म. प्र.
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रसखान की पदावलियाँ | Raskhan Padawali
मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
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प्रेम देश का... | ग़ज़ल
प्रेम देश का ढूंढ रहे हो गद्दारों के बीच
फूल खिलाना चाह रहे हो अंगारों के बीच
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आज भी खड़ी वो...
निराला की कविता, 'तोड़ती पत्थर' को सपना सिंह (सोनश्री) आज के परिवेश में कुछ इस तरह से देखती हैं:
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तितली | बाल कविता
रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को भाते हैं।
कलियाँ देख तुम्हें खुश होतीं फूल देख मुसकाते हैं।।
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