गीत

गीतों में प्राय: श्रृंगार-रस, वीर-रस व करुण-रस की प्रधानता देखने को मिलती है। इन्हीं रसों को आधारमूल रखते हुए अधिकतर गीतों ने अपनी भाव-भूमि का चयन किया है। गीत अभिव्यक्ति के लिए विशेष मायने रखते हैं जिसे समझने के लिए स्वर्गीय पं नरेन्द्र शर्मा के शब्द उचित होंगे, "गद्य जब असमर्थ हो जाता है तो कविता जन्म लेती है। कविता जब असमर्थ हो जाती है तो गीत जन्म लेता है।" आइए, विभिन्न रसों में पिरोए हुए गीतों का मिलके आनंद लें।

इस श्रेणी के अंतर्गत

याद बहुत आती है | गीत

- विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश

याद बहुत आती है
 
एकाकी प्रहरों में याद बहुत आती है। 
बेकली बढ़ाती है।
 
समझा कर हार गया किन्तु नहीं माना मन, 
रूप किरन पाने को मचल मचल जाता मन; 
नींद निगोड़ी मेरे पास नहीं आती है। 
पल-पल तरसाती है। 
याद बहुत आती है ।।
 
नयनों के द्वार खड़े सपने सकुचाते हैं 
पलकों तक आ-आकर लौट-लौट जाते हैं 
आँसू के सरगम पर पीड़ा खुद गाती है 
लोरियाँ सुनाती है।
याद बहुत आती है॥
 
- विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश

 
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मुझसे मेरी व्यथा न पूछो | गीत

- गणेश शंकर शुक्ल 'बंधु'

जो कुछ मुझपर बीत रही है कह न सकूंगा है मजबूरी। 
पूरब पश्चिम एक कर दिए मिट न सकी फिर भी
वह दूरी।
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अपने लिए मुझे | गीत

- शकुंतला अग्रवाल शकुन 

चाहे जो इल्जाम लगाए, दुनिया मुझ पर आज।
अपने लिए मुझे जीना है, हो कोई नाराज॥ 
 
बहुत यहाँ  कर्तव्य निभाए, चाहूँ अब अधिकार
छिप-छिप कर अब भरना आहें, नहीं मुझे स्वीकार।
करे उपेक्षा कोई मेरी, बन जाऊँ तलवार
हाथ लगाए जो दामन को,कर दूँ  टुकड़े  चार।
मनमानी अब करना छोड़े,पुरुष प्रधान समाज॥
अपने लिए मुझे.....
 
पंख लगा कर, उम्मीदों के, नाप रही आकाश
भिड़ जाती हूँ विपदा से मैं,होती नहीं निराश।
नेह-भरे मैं दीप जलाऊँ, अपने आँगन द्वार
पथ के रोड़े डिगा न पाए, प्रभु तेरा आभार।
रख बुलंद हौसले जीत के,पहनूँगी मैं ताज॥ 
अपने लिए मुझे.....
 
तोड़ बेडियाँ सारी मैंने, देखो भरी उड़ान
शक्ति-स्वरूपा बन कर मैंने,पाया है सम्मान।
स्वर्ग बनाया निज जीवन को, मन में रख विश्वास
तोड़ पुरानी परम्पराएँ, रचा नया इतिहास।
अगर ठान लो तो होता कब, मुश्किल कोई काज?
अपने लिए मुझे.....
 
-शकुंतला अग्रवाल शकुन 
 भीलवाड़ा राजस्थान
ई-मेल : shakuntalaagrwal3@gmail.com

 
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