ग़ज़लें

ग़ज़ल क्या है? यह आलेख उनके लिये विशेष रूप से सहायक होगा जिनका ग़ज़ल से परिचय सिर्फ पढ़ने सुनने तक ही रहा है, इसकी विधा से नहीं। इस आधार आलेख में जो शब्‍द आपको नये लगें उनके लिये आप ई-मेल अथवा टिप्‍पणी के माध्‍यम से पृथक से प्रश्‍न कर सकते हैं लेकिन उचित होगा कि उसके पहले पूरा आलेख पढ़ लें; अधिकाँश उत्‍तर यहीं मिल जायेंगे। एक अच्‍छी परिपूर्ण ग़ज़ल कहने के लिये ग़ज़ल की कुछ आधार बातें समझना जरूरी है। जो संक्षिप्‍त में निम्‍नानुसार हैं: ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्‍ला, मक्‍ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन में ही हैं। यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि किसी ग़ज़ल में सभी शेर एक ही विषय की निरंतरता रखते हों तो एक विशेष प्रकार की ग़ज़ल बनती है जिसे मुसल्‍सल ग़ज़ल कहते हैं हालॉंकि प्रचलन गैर-मुसल्‍सल ग़ज़ल का ही अधिक है जिसमें हर शेर स्‍वतंत्र विषय पर होता है। ग़ज़ल का एक वर्गीकरण और होता है मुरद्दफ़ या गैर मुरद्दफ़। जिस ग़ज़ल में रदीफ़ हो उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं अन्‍यथा गैर मुरद्दफ़।

इस श्रेणी के अंतर्गत

भुला न सका | ग़ज़ल

- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

मैं उनकी याद को दिल से कभी भुला न सका,
लगी वो आग जिसे आज तक बुझा न सका। 
 
हँसो-हँसो मेरी दीवानगी पे खूब हँसो,
कि खुद भी खोया गया और उन्हें भी पार न सका। 
 
वो जा रहे थे कहीं दूर जब जुदा होकर,
हज़ार चहा बुलाना मगर बुला न सका। 
 
लिहाज़-ए-शर्म ओ हया और खौफ़-ए-बदनामी,
वो पूछ कुछ न सके और मैं बता न सका। 
 
कभी जो आँख-मिचौली का खेल खेला था,
वो खेल-खेल में ऐसे छुपे कि पा न सका। 
 
हज़ार जतन किए और लाख कोशिश की,
चिराग-ए-इश्क को आँखों से मैं बुझा न सका। 
 
भरे पड़े थे मेरे दिल में सैकड़ों शिकवे,
नज़र मिली तो मैं कुछ भी जुबां पे ला न सका। 
 
न दीन और न दुनिया रही मोहब्बत में,
खुदा को भूल के भी मैं सनम को पा न सका। 
 
बचा है ‘हंस’ ये अरमान ज़िंदगानी में,
कि ‘कैस’ बन के भी लैला उसे बना न सका। 
 
-उदयभानु ‘हंस’
(1946)

 
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दुख अपना हर... | ग़ज़ल

- शमशेरबहादुर सिंह 

दुख अपना हर किसी को बताने से फ़ायदा 
इस बेकसी को अपना बनाने से फ़ायदा ! 
 
बातें हज़ार उठती हैं एक-एक बात से, 
लेकिन हज़ार बातों में जाने से फ़ायदा ! 
 
उठ और झटक के फेंक दे यह सारे आस्तीं, 
ग़म को जिगर का खून पिलाने से फ़ायदा ! 
 
अपने सिवा तो कोई भी अपना नहीं तेरा, 
'शमशेर' मुफ्त जान खपाने से फ़ायदा !

-शमशेरबहादुर सिंह 
(आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित)
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किस्से नहीं हैं ये किसी | ग़ज़ल

- ज़हीर कुरेशी

किस्से नहीं हैं ये किसी 'राँझे' की 'हीर' के 
ये शेर हैं--अँधेरों से लड़ते 'ज़हीर' के
 
मैं आम आदमी हूँ--तुम्हारा ही आदमी 
तुम काश, देख पाते मेरे दिल को चीर के
 
सब जानते हैं जिसको 'सियासत' के नाम से 
हम भी कहीं निशाने हैं उस खास तीर के
 
चिंतन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही 
जन्में हैं अपने आप ही दोहे 'कबीर' के
 
हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे 
मगर बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के
 
- ज़हीर कुरेशी

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