कहानियां

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गुल्ली-डण्डा | कहानी

- मुंशी प्रेमचंद

हमारे अँग्रेजीदाँ दोस्त माने या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डण्डा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ गये तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान मँहगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो सकता। यहाँ गुल्ली-डण्डा है कि बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है। पर हम अँग्रेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गयी है। हमारे स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलायें जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अंग्रेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यवसन मढ़ते हो। ठीक है, गुल्ली से आँख फूट जाने का भय रहता है तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का भय नहीं रहता। अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। खैर, यह अपनी-अपनी रुचि है। मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है। वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डण्डे बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई‌-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिलकुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, उसी वक्त भूलेगा जब...जब...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे है, अम्मा की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अन्धकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी; पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है।
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कुंभ स्नान | लघुकथा

- डॉ. वंदना मुकेश | इंग्लैंड

कुम्भ स्नान लघुकथा
 
हज़ारों की भीड़ चली जा रही है गंगा-स्नान करने। वह भी उसी भीड़ का हिस्सा है। मन आशंकित है, फिर वह कौनसी शक्ति उसे वहाँ खींचे ले जा रही है। छोटे-से शहर में रहता है। ऐसे शहर में, जो हमेशा गलत कारणों से सुर्खियों में रहता है। बस परेशान हो गया वह और निकल पड़ा और उसी भीड़ का हिस्सा बन गया जो प्रयागराज महाकुंभ में स्नान करने जा रहे थे।
 
एकाएक भोजन की महक से उसकी इंद्रियाँ मचलने लगी। याद आया कि घर से निकले हुए 24 घंटे हो चुके थे उसे। परसों दोपहर बाद निकला था ....और अब दिन चढ़ने को है। वह मन ही मन सोच रहा था कि अव बह क्या करेगा? किससे मदद माँगे? कहाँ भोजन करेगा वह?  जब वह प्रयागराज रेलवे स्टेशन से बाहर निकला तब उसे होश आया कि उसकी जेब कट गई है। एक पुराना फोन और पाँच सौ रुपये थे उसके पास। लेकिन अब न पैसे न फोन। कौन मानेगा उसकी बात, किससे फरियाद करेगा?  वापस कैसे जाएगा? तभी लगभग उसका हाथ खींचते हुए किसी ने कहा, ‘भोजन पाइए महाराज’। वह समझ पाता, इसके पहले वह एक तंबू के अंदर था। पत्तल पर भोजन परोसा जा रहा था। वह सिमट गया, उसने चुपचाप भोजन कर लिया। उसकी जान में जान आई। हाथ धोकर वह बाहर आया। उसे ठंड महसूस हुई, फोन और पैसे गँवाने के बाद कपड़े गँवाने की इच्छा न थी। एक तो पहले ही उसका मन आशंकित औऱ अब सब कुछ गँवाकर गंगा स्नान की एक इच्छा क्षीण हो गई थी।  
 
लेकिन न जाने कैसे, बाहर आते ही बिना प्रयत्न के वह एक और भीड़ का हिस्सा बना गया। सब ज़ोर-ज़ोर से भक्ति-भाव से गाते जा रहे थे, ‘गंगा मैया की जय, जय जय गंगा मैया! ‘पतिततारिणी पापहारिणी, माता तेरी जय जय जय’ कुछ लोगों के माथे पर बड़े-बड़े चंदन और कुंकुम के तिलक लगे थे। उसके स्मृति-पटल पर एक फटी-सी किताब के कुछ पन्ने फड़फड़ाने लगे। वह भी जोर से चिल्लाया, ‘माता तेरी जय जय जय’ और ‘बिना बढ़े ही आगे को जाने किस बल के ढिकला! 
 
लोगों की देखादेखी यंत्रवत कपडे उतारे, गले की ताबीज़ भी छुपा कर शर्ट की जेब में रख दी। शर्ट को पेंट, स्वेटर  के बीच लपेटा कर रख दिया एक सुरक्षित कोने में। फिर उसने भी धीरे से पैर रख दिया पानी में। ‘जय गंगा मैया’ की पुकार के साथ लोग संकल्प ले-लेकर डुबकी ले रहे थे। उसने भी सबकी तरह दोनों हाथों में गंगा जल लिया और मुँह के भीतर ही बुदबुदाया, ‘या अल्लाह, मेरे तमाम भाई-बहनों को नेकी बख्श, मोहब्ब्त से भरदे अक्ल अता फरमा , ताकि कोई हम पर उँगली न उठाए’ रहम कर..., फिर उसकी आँखों से आँसू बह निकले जो गंगा के पानी में मिल गए ।
 
-डॉ वंदना मुकेश 
 35 ब्रुकहाउस रोड, वॉलसॉल, इंग्लैण्ड

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डाक मुन्शी | कहानी

- फकीरमोहन सेनापति

हरि सिंह सरकारी सेवा में जब से नियुक्त हुए तब से लेकर आज तक वे देहात के छोटे-बड़े सभी पोस्ट ऑफिसों में जाकर वहाँ के कार्य को परख चुके हैं। आज दस साल हो गए हैं, वे कटक सदर पोस्ट ऑफिस में कार्य कर रहे हैं। उत्तम कार्य के लिए उन्नति भी हुई है। इस समय वे प्रधान पोस्ट पिअन है और नौ रुपया मासिक वेतन है। कटक शहर में हर एक वस्तु खरीदने पर मिलती है। जरा-सी आग के लिए यदि दिवासलाई न खरीदें तो काम नहीं चलेगा। कतरब्यौंत से चलने पर भी मासिक पाँच रुपए से कम में गुजारा नहीं होता। मासिक चार रुपए घर न भेजें तो काम नहीं चल सकता। घर में पत्नी और आठ साल का लड़का गोपाल है। देहाती जगह, किसी तरह कतरब्यौंत से चार रुपए में गुजारा हो ही जाता है। उसमें से एक पैसा भी कम हो तो चलना मुश्किल है। गोपाल अपर प्राइमरी स्कूल में पढ़ता है। स्कूल फीस मासिक दो आना है। फीस के अलावा आज पुस्तक तो कल स्लेट, कागज आदि चीजें खरीदने में खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार के ऊपरी खर्च बढ़ जाने पर उस मास में बहुत कष्ट होता है। बूढ़े को कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। लक्ष्य होता है "मैं उपवास भले ही करूं लेकिन गोपाल पढ़े।"
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श्यामली जीजी | कहानी

- रेखा राजवंशी | ऑस्ट्रेलिया

ये किस्सा है सांवली सलोनी, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, कान्वेंट में पढ़ी लिखी, अंग्रेजी हिंदी दोनों भाषाओ में निपुण, आकर्षक महिला श्यामली जीजी का।

श्यामली, जब मैं उनसे मिली तो वे अकेली थीं। अकेली तो थीं पर लोगों की भीड़ अपने चारों ओर इकट्ठी करने में देर नहीं लगाती थीं। एक खासियत थी उनमें जिसे हम अंग्रेजी में कहते हैं 'गिफ्ट ऑफ़ गैब', जब चाहें जिसे चाहें अपनी बातों के जाल में अटका लेना या कहूँ रिझा लेना।

 जब मैं पहली बार अपनी एक सहेली माया के माध्यम से उनसे मिली तो वे एक कठिन दौर से गुज़र रहीं थीं। बेहद अकेली और डिप्रेस्ड। माया के मुंह से बार-बार सुना—'श्यामली जीजी ये…श्यामली जीजी वो… बहुत बड़े, बहुत अमीर डाक्टर से शादी हुई थी उनकी, दूसरी शादी, अब वो टूट गई, तलाक हो रहा है' वगैरह-वगैरह।

तब मेरे पति नौकरी के सिलसिले में बाहर थे और मैं अपने दोनों बच्चों के साथ अकेली थी। जहाँ सिडनी की खूबसूरती मुझे लुभा रही थी वहीं दो छोटे बच्चों के साथ नए देश में व्यवस्थित होने की चिंता भी थी। सबकी देखा-देखी मेरे लिए भी वो ‘श्यामली जीजी’ बन गईं। नए शहर में मुझे उनकी संगत अच्छी लगी, उनकी नज़रों से सिडनी देखने और समझने में मदद मिली।  
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आँगन की चिड़िया | कहानी

- राजुल अशोक  

’चाची...।’ पड़ोस वाली नन्हीं पिंकी आवाज़ दे रही थी। 
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लौटता हुआ स्वर | कहानी

- प्रतिमा वर्मा

लौटता हुआ स्वर
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