काव्य

जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

इस श्रेणी के अंतर्गत

अबू बिन आदम और देवदूत | अनूदित कविता

- जेम्स हेनरी ली हंट

एक रात अबू बिन आदम, घोर स्वप्न में जाग पड़े।
देखा जब कमरे को अपने, हुए महाशय चकित बड़े॥
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पिता पर हाइकु

- रश्मि विभा त्रिपाठी 

पिता के देश
जुगनू, चंदा, सूर्य 
तथा उन्मेष।
 
पिता का प्रेम 
बाल कुशल- क्षेम 
अभिलाषी है।
 
पिता का जाना
जीवन अस्त- व्यस्त 
आँधी का आना।
 
पिता के जाते 
विदा हो गए सभी
रिश्ते औ नाते।
 
पिता हैं बुद्ध
दु:ख- निवृत्ति हेतु
नित्य प्रबुद्ध।
 
पिता हैं कल्कि 
क्षमा ही नहीं बल्कि 
उद्धार करें।
 
पिता हैं कृष्ण 
करें जीवन- प्रश्न 
पल में हल।
 
पिता वशिष्ठ 
धर्म औ नीति पढ़ो 
होओ उत्तिष्ठ। 
 
पिता का क्रोध
जीवन- अवरोध 
मिटाने आता।
 
ले काँधे घूमे 
नदी- गिरि- अरण्य
पिता हैं धन्य।
 
पिता हैं पेड़
सहें हवा की मार 
शाखों से प्यार।
 
पिता हैं माली
करते रखवाली
बाल- बाड़ी की।
 
पिता हैं शिल्पी
शिशु- आलेख गढा
नेह में मढ़ा।
 
पिता हैं स्तंभ 
टूटेंगे सारे दम्भ 
यदि गिरे तो!
 
पिता धरा- से
सौ-सौ भार उठाए 
तो भी मुस्काए।
 
पिता ज्योति- से
रहे स्वयं को बाल
शिशु का ख्याल।
 
पिता नदी- से 
भरी तृषा की प्याली 
कभी न खाली।
 
पिता वट- से 
बाँधे जो दुआ- धागे 
तो विघ्न भागे।
 
पिता तरु- से
जब ताप बरसे
दें घनी छाया।
 
पिता विहान
तिमिर का प्रस्थान
सुनिश्चित है।
 
पिता का प्यार 
मरुथल में वर्षा
मूसलाधार।

-रश्मि विभा त्रिपाठी 
 ई-मेल : rashmivibhatripathi@gmail.com

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डॉo सत्यवान 'सौरभ' के दोहे

- डॉo सत्यवान 'सौरभ'

सास ससुर सेवा करे, बहुएँ करती राज।
बेटी सँग दामाद के, बसी मायके आज॥
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भुला न सका | ग़ज़ल

- उदयभानु हंस | Uday Bhanu Hans

मैं उनकी याद को दिल से कभी भुला न सका,
लगी वो आग जिसे आज तक बुझा न सका। 
 
हँसो-हँसो मेरी दीवानगी पे खूब हँसो,
कि खुद भी खोया गया और उन्हें भी पार न सका। 
 
वो जा रहे थे कहीं दूर जब जुदा होकर,
हज़ार चहा बुलाना मगर बुला न सका। 
 
लिहाज़-ए-शर्म ओ हया और खौफ़-ए-बदनामी,
वो पूछ कुछ न सके और मैं बता न सका। 
 
कभी जो आँख-मिचौली का खेल खेला था,
वो खेल-खेल में ऐसे छुपे कि पा न सका। 
 
हज़ार जतन किए और लाख कोशिश की,
चिराग-ए-इश्क को आँखों से मैं बुझा न सका। 
 
भरे पड़े थे मेरे दिल में सैकड़ों शिकवे,
नज़र मिली तो मैं कुछ भी जुबां पे ला न सका। 
 
न दीन और न दुनिया रही मोहब्बत में,
खुदा को भूल के भी मैं सनम को पा न सका। 
 
बचा है ‘हंस’ ये अरमान ज़िंदगानी में,
कि ‘कैस’ बन के भी लैला उसे बना न सका। 
 
-उदयभानु ‘हंस’
(1946)

 
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विरह का गीत | हास्य काव्य

- कवि चोंच

तुम्हारी याद में खुद को बिसारे बैठे हैं।
तुम्हारी मेज पर टंगरी पसारे बैठे हैं ।
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एप्रिल फूल | हास्य काव्य

- प्रो० मनोरंजन

एप्रिल फूल आज है साथी,
आओ, तुमको मूर्ख बनाऊँ;
मैं भी हँसू, हँसो कुछ तुम भी,
फिर तुम मैं, मैं तुम बन जाऊँ।
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आप हँसते जाइए | हास्य-कविता

- बी० आर० नागर

आप हँसते जाइए हमको हँसाते जाइए
चमचमाते दांत मोती से दिखाते जाइए
 
भरके रक्खी मेज पर 'ख्याली पुलाओ' की पलेट
आप भी उस में से चम्मच इक उठाते जाइए
 
कुछ उड़ाते गप्प हैं और कुछ उड़ाते हैं पतंग
आप 'हाथों के मगर तोते उड़ाते जाइए 
 
चाहिए कब शेखचिल्ली को किराए का मकान,
बस 'हवा में एक किला-सा बनाते जाइए 
 
सात नम्बर डेड़-सौ में से मिले भूगोल में
एक जीरो सात के आगे लगाते जाइए 
 
-बी० आर० नागर

 
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चुम्मन चाचा की होली | कुंडलियाँ

- डॉ सुशील शर्मा

होली में पी कर गए,चाचा चुम्मन भंग।
नाली में उल्टे पड़े, लिपटे कीचड़ रंग॥
लिपटे कीचड़ रंग,नहीं सुध-बुध है तन की।
लटके झटके नाच,खूब कर ली है मन की॥
लिए हाथ में रंग, आज चाची भी बोली।
हे प्राणों के नाथ,खेलते आओ होली॥
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कविताएँ रहेंगी | कविता

- अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'

हृदय को संवेदना की
कसौटी पर कसेंगी
कुछ रहे न रहे
      कविताएँ रहेंगी।
 
मेरी-तेरी, इसकी-उसकी, 
मुलाकातें, जग की बातें,
जगकर्ता के क़िस्से कहेंगी
कुछ  रहे न रहे
        कविताएँ रहेंगी। 
 
भागते हुए
वक़्त की चरितावली
संघर्ष की व्यथा-कथा
विकास की विरुदावली
कभी शांति की
संहिता रचेंगी
कुछ  रहे न रहे
      कविताएँ रहेंगी।
 
- अनुपमा श्रीवास्तव 'अनुश्री'
  ई-मेल : ashri0910@gmail.com 
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तुम भी लौटोगी | कविता

- संजय कुमार सिंह

मैं नहीं जानता कि कोई आएगा कि नहीं
पर मैंने इस जीवन-जगत से
धरती  नदी, पहाड़ से
चिड़िया, तितली, फूल,  
बादल से और तुमसे प्रेम किया है
इसलिए तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ।
घूमने के लिए पूरी दुनिया है
और लोग घूम भी रहे हैं मीना बाजार से लेकर
आइकाँन टॉवर तक
ताज महल से ताज होटल,
लालकिला, इण्डिया गेट
अजन्ता, एलोरा की गुफाओं तक 
और न जाने कहाँ-कहाँ
सबसे बड़े रॉक, सब से अनोखे फॉल
और सबसे सुंदर फूलों से लदी धरती की वह तलहटी...
पर वह संभव नहीं है, न समय और न गाँठ में पैसे
इसलिए सरसों के उसी पीले खेत में
धूल-माटी वाले अपने घर में
तुम्हारी यादों को संजोए मैं तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ
और सोच रहा हूँ कि जब चीजें एक न एक दिन लौटती हैं
तो तुम भी लौटोगी 
बेगानेपन से उदास होकर
और कहोगी
कि यह मेरा गाँव
यह मेरा बचपन
और यह मेरा छूटा हुआ कोई अंश
दुनिया की हर चीज से सुंदर, अलभ्य, अनमोल!
ढेर सारी खुशियों और प्यार से अह्लादित मैं हसूँगा
अपने जर्जर फेफड़े में हवा खींचकर
गहरे अविश्वास और विस्मय से
और कहूँगा यह वही पेड़ है
जो तुम्हारे लौटने के इन्तजार में बड़ा हुआ
इसकी एक तस्वीर उतारो और साथ में रख लो
यह मंदिर, यह स्कूल, यह सड़क, घर-आँगन  देहरी, और तुलसी-चौड़ा...सब में  तुम्हारी गंध बसी हुई है
अब जब तुम फिर लौटोगी या नहीं
इन चीजों का तुम्हारे साथ होना
अनंत दुनिया में एक जीवंत दुनिया की उपस्थिति
तुम्हें खींच कर लाएगी
और तुम कह सकोगी
कि यह...
हाँ प्रिये! जब  वास्तव में कुछ नहीं बचे
तो उसे स्मृति में बचाना भी एक उपाय है
ताकि तुम कहीं भी लौटो!
 
 -संजय कुमार सिंह
  ई-मेल : sksnayanagar9413@gmail.com
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आधी रात को | कविता

- नेतलाल यादव

बचपन में एक दिन
सोया था, दादा के साथ
अचानक आधी रात को
कुत्ते भौंक रहे थे,
कुत्तों की आवाज़ से
मैं जग गया था
उस वक्त दादा ने बताया था—
जब कोई अशुभ घटना घटती हैं
कुत्ते रात को रोते हैं 
कुकुर का रोना ठीक नहीं है। 
तब लगा था कि— 
दादा की बातों में 
अंधविश्वास की गंध है,
मगर अब जाना
बड़े-बुजुर्गों की बातों में
बहुत सत्यता होती है।
प्राकृतिक आपदाओं के
संकेतक होते हैं, पशु-पक्षी
घ्राण शक्तियों से
समझते हैं, वे सारी बातें। 
                     
- नेतलाल यादव 
  ई-मेल : netlaly@gmail.com
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दुख अपना हर... | ग़ज़ल

- शमशेरबहादुर सिंह 

दुख अपना हर किसी को बताने से फ़ायदा 
इस बेकसी को अपना बनाने से फ़ायदा ! 
 
बातें हज़ार उठती हैं एक-एक बात से, 
लेकिन हज़ार बातों में जाने से फ़ायदा ! 
 
उठ और झटक के फेंक दे यह सारे आस्तीं, 
ग़म को जिगर का खून पिलाने से फ़ायदा ! 
 
अपने सिवा तो कोई भी अपना नहीं तेरा, 
'शमशेर' मुफ्त जान खपाने से फ़ायदा !

-शमशेरबहादुर सिंह 
(आकाशवाणी इलाहाबाद से प्रसारित)
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किस्से नहीं हैं ये किसी | ग़ज़ल

- ज़हीर कुरेशी

किस्से नहीं हैं ये किसी 'राँझे' की 'हीर' के 
ये शेर हैं--अँधेरों से लड़ते 'ज़हीर' के
 
मैं आम आदमी हूँ--तुम्हारा ही आदमी 
तुम काश, देख पाते मेरे दिल को चीर के
 
सब जानते हैं जिसको 'सियासत' के नाम से 
हम भी कहीं निशाने हैं उस खास तीर के
 
चिंतन ने कोई गीत लिखा या ग़ज़ल कही 
जन्में हैं अपने आप ही दोहे 'कबीर' के
 
हम आत्मा से मिलने को व्याकुल रहे 
मगर बाधा बने हुए हैं ये रिश्ते शरीर के
 
- ज़हीर कुरेशी

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याद बहुत आती है | गीत

- विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश

याद बहुत आती है
 
एकाकी प्रहरों में याद बहुत आती है। 
बेकली बढ़ाती है।
 
समझा कर हार गया किन्तु नहीं माना मन, 
रूप किरन पाने को मचल मचल जाता मन; 
नींद निगोड़ी मेरे पास नहीं आती है। 
पल-पल तरसाती है। 
याद बहुत आती है ।।
 
नयनों के द्वार खड़े सपने सकुचाते हैं 
पलकों तक आ-आकर लौट-लौट जाते हैं 
आँसू के सरगम पर पीड़ा खुद गाती है 
लोरियाँ सुनाती है।
याद बहुत आती है॥
 
- विष्णु कुमार त्रिपाठी राकेश

 
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मुझसे मेरी व्यथा न पूछो | गीत

- गणेश शंकर शुक्ल 'बंधु'

जो कुछ मुझपर बीत रही है कह न सकूंगा है मजबूरी। 
पूरब पश्चिम एक कर दिए मिट न सकी फिर भी
वह दूरी।
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अपने लिए मुझे | गीत

- शकुंतला अग्रवाल शकुन 

चाहे जो इल्जाम लगाए, दुनिया मुझ पर आज।
अपने लिए मुझे जीना है, हो कोई नाराज॥ 
 
बहुत यहाँ  कर्तव्य निभाए, चाहूँ अब अधिकार
छिप-छिप कर अब भरना आहें, नहीं मुझे स्वीकार।
करे उपेक्षा कोई मेरी, बन जाऊँ तलवार
हाथ लगाए जो दामन को,कर दूँ  टुकड़े  चार।
मनमानी अब करना छोड़े,पुरुष प्रधान समाज॥
अपने लिए मुझे.....
 
पंख लगा कर, उम्मीदों के, नाप रही आकाश
भिड़ जाती हूँ विपदा से मैं,होती नहीं निराश।
नेह-भरे मैं दीप जलाऊँ, अपने आँगन द्वार
पथ के रोड़े डिगा न पाए, प्रभु तेरा आभार।
रख बुलंद हौसले जीत के,पहनूँगी मैं ताज॥ 
अपने लिए मुझे.....
 
तोड़ बेडियाँ सारी मैंने, देखो भरी उड़ान
शक्ति-स्वरूपा बन कर मैंने,पाया है सम्मान।
स्वर्ग बनाया निज जीवन को, मन में रख विश्वास
तोड़ पुरानी परम्पराएँ, रचा नया इतिहास।
अगर ठान लो तो होता कब, मुश्किल कोई काज?
अपने लिए मुझे.....
 
-शकुंतला अग्रवाल शकुन 
 भीलवाड़ा राजस्थान
ई-मेल : shakuntalaagrwal3@gmail.com

 
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