हमारे अँग्रेजीदाँ दोस्त माने या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डण्डा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डण्डा खेलते देखता हूँ, तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ गये तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान मँहगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो सकता। यहाँ गुल्ली-डण्डा है कि बिना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है। पर हम अँग्रेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गयी है। हमारे स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलायें जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अंग्रेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यवसन मढ़ते हो। ठीक है, गुल्ली से आँख फूट जाने का भय रहता है तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का भय नहीं रहता। अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। खैर, यह अपनी-अपनी रुचि है। मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है। वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डण्डे बनाना, वह उत्साह, वह लगन, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिसमें छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिलकुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, उसी वक्त भूलेगा जब...जब...। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे है, अम्मा की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अन्धकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी; पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनन्द भरा हुआ है।
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कथा-कहानियाँ
इस श्रेणी के अंतर्गत
गुल्ली-डण्डा | कहानी
बन्दर | लघुकथा
प्रेत समुद्र के पास किसी नगर के वासी बड़े विलासी और आलसी थे और परमेश्वर ने उन्हें धर्मोपदेश करने को, हजरत मूसा को भेजा। मूसा ने बड़ी गम्भीरता से उन्हें अपने सिद्धान्त समझाए और धर्मोपदेश दिया। उन महाशयों ने मूसा की ओर मुंह चिढ़ाया और उसके भाषण को सुनकर जंभाड्यां लीं और दांत निकालकर मूसा को स्पष्ट सुना दिया कि हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। मूसा ने अपना रास्ता लिया।... वे सब मनुष्य बन्दर हो गये। अब वे जगत की ओर मजे में मुह चिढ़ाते हैं और चिढ़ाते ही रहेंगे।
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कुंभ स्नान | लघुकथा

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डाक मुन्शी | कहानी
हरि सिंह सरकारी सेवा में जब से नियुक्त हुए तब से लेकर आज तक वे देहात के छोटे-बड़े सभी पोस्ट ऑफिसों में जाकर वहाँ के कार्य को परख चुके हैं। आज दस साल हो गए हैं, वे कटक सदर पोस्ट ऑफिस में कार्य कर रहे हैं। उत्तम कार्य के लिए उन्नति भी हुई है। इस समय वे प्रधान पोस्ट पिअन है और नौ रुपया मासिक वेतन है। कटक शहर में हर एक वस्तु खरीदने पर मिलती है। जरा-सी आग के लिए यदि दिवासलाई न खरीदें तो काम नहीं चलेगा। कतरब्यौंत से चलने पर भी मासिक पाँच रुपए से कम में गुजारा नहीं होता। मासिक चार रुपए घर न भेजें तो काम नहीं चल सकता। घर में पत्नी और आठ साल का लड़का गोपाल है। देहाती जगह, किसी तरह कतरब्यौंत से चार रुपए में गुजारा हो ही जाता है। उसमें से एक पैसा भी कम हो तो चलना मुश्किल है। गोपाल अपर प्राइमरी स्कूल में पढ़ता है। स्कूल फीस मासिक दो आना है। फीस के अलावा आज पुस्तक तो कल स्लेट, कागज आदि चीजें खरीदने में खर्च करना पड़ता है। इस प्रकार के ऊपरी खर्च बढ़ जाने पर उस मास में बहुत कष्ट होता है। बूढ़े को कभी-कभी उपवास भी करना पड़ता है। लक्ष्य होता है "मैं उपवास भले ही करूं लेकिन गोपाल पढ़े।"
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श्यामली जीजी | कहानी
ये किस्सा है सांवली सलोनी, बड़ी-बड़ी आँखों वाली, कान्वेंट में पढ़ी लिखी, अंग्रेजी हिंदी दोनों भाषाओ में निपुण, आकर्षक महिला श्यामली जीजी का।
श्यामली, जब मैं उनसे मिली तो वे अकेली थीं। अकेली तो थीं पर लोगों की भीड़ अपने चारों ओर इकट्ठी करने में देर नहीं लगाती थीं। एक खासियत थी उनमें जिसे हम अंग्रेजी में कहते हैं 'गिफ्ट ऑफ़ गैब', जब चाहें जिसे चाहें अपनी बातों के जाल में अटका लेना या कहूँ रिझा लेना।
जब मैं पहली बार अपनी एक सहेली माया के माध्यम से उनसे मिली तो वे एक कठिन दौर से गुज़र रहीं थीं। बेहद अकेली और डिप्रेस्ड। माया के मुंह से बार-बार सुना—'श्यामली जीजी ये…श्यामली जीजी वो… बहुत बड़े, बहुत अमीर डाक्टर से शादी हुई थी उनकी, दूसरी शादी, अब वो टूट गई, तलाक हो रहा है' वगैरह-वगैरह।
तब मेरे पति नौकरी के सिलसिले में बाहर थे और मैं अपने दोनों बच्चों के साथ अकेली थी। जहाँ सिडनी की खूबसूरती मुझे लुभा रही थी वहीं दो छोटे बच्चों के साथ नए देश में व्यवस्थित होने की चिंता भी थी। सबकी देखा-देखी मेरे लिए भी वो ‘श्यामली जीजी’ बन गईं। नए शहर में मुझे उनकी संगत अच्छी लगी, उनकी नज़रों से सिडनी देखने और समझने में मदद मिली।
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मॉरीशस का रहस्यमयी मूड़िया पहाड़ | लोक-कथा
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अस्तित्वहीन नहीं | लघुकथा
उस रात कड़ाके की सर्दी थी। सड़क के दोनों ओर की बत्तियों के आसपास कोहरा पसर गया था।
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बेटी | लघुकथा
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