कविताएं

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इस श्रेणी के अंतर्गत

न संज्ञा, न सर्वनाम

- शंभू ठाकुर

मैं हूँ-- 
न संज्ञा, न सर्वनाम,
वर्णाक्षरों के भीड़ में,
शायद कोई 
मात्रा गुमनाम!
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नून-तेल की खोज में

- नेतलाल यादव

सफ़र की पिछली रात
हरिया को नींद नहीं आई,
उठ गया, अहले सुबह
भर लिया, सारा कपड़ा
अपनी पुरानी थैली में,
खा लिया, भात और चटनी। 
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मुकरियाँ 

- गौतम कुमार “सागर”

चिपटा रहता है दिन भर वो
बिन उसके भी चैन नहीं तो
ऊंचा नीचा रहता टोन
ए सखि साजन? ना सखि फोन!

इसे जलाकर मैं भी जलती
रोटी भात इसी से मिलती
ये बैरी मिट्टी का दूल्हा
ए सखि साजन? ना सखि चूल्हा!
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माँ के बाद पिता

- विनोद दूबे

माँ मर गयी तो पिता यूँ हो गए, 
जैसे दो में से एक नहीं, सिर्फ शून्य शेष रह गया,
माँ, पिता और बच्चों के संबाद का पुल थी,  
अब पिता अकसर ख़ामोश रहते हैं,
माँ के साथ उनका वो पुल भी बह गया। 
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बचपन बीत रहा है

- योगेन्द्र प्रताप मौर्य

नचा रही मजबूरी यहाँ
अँगुलियों पर,
ध्यान किसी का जाता नहीं
सिसकियों पर।
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निःशब्द कविता

- डॉ अनीता शर्मा

उधर गगन में 
सूरज की बिंदी 
नीले नभ में 
तैरते बादल
बादलों के बीच 
उड़ते परिंदे।  
इधर झील में
खिले कमल 
मंद पवन 
निश्चल बन 
निहारती 
केवल मौनता 
कोई रच गया 
निःशब्द कविता। 
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नारी

- रति चौबे

कहते मुझे नारी
लता सी कोमल
जहां मिला ठोस आधार
लता सी विश्वास कर
लिपटती जाऊं
जड़े मेरी परिपक्व
छोड़ूं ना वो स्थल
पर--
निशब्द
मूक
अशक्त
नहीं मैं
अद्भुत ईश्वरीय कृति हूँ--
महारानी बन शासन
करूं मै--
बनूं कोमलाग्नि लावण्या
पुरुषों को करूं मौन
विधोत्तमा बन रचूं मैं--
पुस्तकें
रहूं घूंघट की ओट में
मांथे पे लागा बिंदी
गृहिणी सी लजाती
माँ, भार्या, भगिनी, पुत्री
प्रेमिका बनी
पर रही बस नारी
मुझे रच विधाता
चकरा गया
जो ना कटे आरि से
ऐसी बनी मैं नारी
बस, नारी
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डॉ दिविक रमेश की पाँच कविताएं

- दिविक रमेश 

दो बच्चे
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