देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।
काव्य
जब ह्रदय अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे काव्य कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

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हिन्दी-हत्या - अरुण जैमिनी

सरकारी कार्यालय में
नौकरी मांगने पहुँचा
तो अधिकारी ने पूछा-
"क्या किया है?"
...

कवि वृन्द के दोहे  - वृन्द

जाही ते कछु पाइये, करिये ताकी आस। 
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझत पियास॥ 
...

वाल्मीकि से अनुरोध - राजेश्वर वशिष्ठ

महाकवि वाल्मीकि 
उपजीव्य है आपकी रामायण
तुलसी से लेकर न जाने कितने ही
प्रतिभावान कवियों ने अपने विवेक और मेधा से
इसे रचा है बार बार
रामायण की कथा 
कितने ही रंगों और सुगंधों के साथ
बन गई है मानव जन जीवन का हिस्सा
हे आदि-कवि तुम्हें प्रणाम!
महाकवि, मैं कवि नहीं हूँ
मुझमें बहुत सीमित है मेधा और विवेक
इसलिए किसी चोर की तरह घुस रहा हूँ 
इस महाग्रंथ में 
और खोजना चाहता हूँ उन पात्रों को
जिन्हें आपने गढ़ा तो सही 
पर इतना अवसर नहीं दिया
कि वे कह पाते अपने मन की बात!
महाकवि, आपने उन्हें बना दिया 
इस रथ के पहियें
और कभी नहीं सुनी 
उनके रुदन की आवाज़
सब देखते रहे रथ की ध्वजा 
उसका वैभव और उसकी गति 
किसने देखना चाहा उन गड्ढों को 
जो हर पल हिला देते थे 
इन पहियों का संतुलन
फिर भी ये चलते रहे समानांतर 
आपके ही गंतव्य की ओर 
आप तो बस श्रीराम के ही सारथी बने रहे! 
महाकवि, मुझे क्षमा करना
मैं विश्वकर्मा तो नहीं हूँ 
कि उन अचर्चित पात्रों के लिए 
रच दूं एक नया नगर
पर हाँ, एक छोटा-सा बढ़ई ज़रूर हूं
जो बनाना चाहता है 
एक सुंदर सी खिड़की
आपकी ही दीवार में
जिसमें से झाँक सके 
उर्मिला, सुमित्रा और मंदोदरी जैसे पात्र 
थोड़ी-सी साँस ले सकें ताज़ा हवा में
और हम उन्हें जी भर कर देख सकें 
उनकी अनकही भावनाओं के साथ!
मुझे शक्ति देना महाकवि,
कलयुग में लोग 
मानवीय भावनाओं के विश्लेषण को लेकर 
अधिक ही विचारशील हो गए हैं!
...

आखिर मैं हूँ कौन? - डॉ पुष्पा भारद्वाज-वुड | न्यूज़ीलैंड

एक मानव...
नहीं।
मुझे तो धीरे-धीरे
मानवता के सभी मूल्य
भूलते जा रहे हैं।
...

डॉ मानव के हाइकु  - डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav

देखे जो छवि
जड़ में चेतन की
वही तो कवि 
...

लड़कपन  - गयाप्रसाद शुक्ल सनेही

चित्त के चाव, चोचले मन के, 
वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के। 
चैन था, नाम था न चिन्ता का, 
थे दिवस और ही लड़कपन के॥ 
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शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी  - सियाराम शरण गुप्त | Siyaram Sharan Gupt

'काफ़िर है, काफ़िर है, मारो!' 
उत्तेजित जन चिल्लाये; 
विद्यार्थी जी बिना झिझक के 
झट से आगे बढ़ आये। 
...

मातृभाषा  - केदारनाथ सिंह

जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर
...

नेतावाणी-वंदना | हास्य कविता - डॉ रामप्रसाद मिश्र

जय-जय-जय अंग्रेज़ी-रानी ! 
...

बदन पे जिसके...  - गोपालदास ‘नीरज’

बदन पे जिसके शराफत का पैरहन देखा 
वो आदमी भी यहाँ हमने बदचलन देखा 
...

ढोल, गंवार... - सुरेंद्र शर्मा

मैंने अपनी पत्नी से कहा --
"संत महात्मा कह गए हैं--
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी!"
[इन सभी को पीटना चाहिए!]
...

माँ की भाषा - रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

जब खेलते-खेलते 
छा जाती है कोई धुन अचानक 
मेरे खिलौनों पर 
माँ की याद आती है अनायास 
यह धुन गुनगुनाती थी माँ 
मुझे झुलाते हुए झूले में 
आ जाती है माँ की याद 
जब फूलों की एक गंध 
बहने लगती है हवा में अचानक 
पतझड़ की किसी सुबह, 
सुबह-सबेरे मंदिर की घंटियों की गंध 
मेरी माँ की गंध जैसी लगती है 
कमरे की खिड़की से 
जब मैं देखता हूँ 
सुदूर नीले आसमान में 
लगता है माँ की निगाहों की स्थिरता 
छा जाती है सारे आकाश पर 
ऐसी ही है मेरी माँ की भाषा
...

कुछ कर न सका  - हरिवंश राय बच्चन | Harivansh Rai Bachchan

मैं जीवन में कुछ कर न सका 
जग में अंधियारा छाया था, 
मैं ज्वाला ले कर आया था, 
मैंने जलकर दी आयु बिता, पर जगती का तम हर न सका । 
मैं जीवन में कुछ कर न सका ! 
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जब सुनोगे गीत मेरे... - आनन्द विश्वास (Anand Vishvas)

दर्द की उपमा बना मैं जा रहा हूँ,
पीर की प्रतिमा बना मैं जा रहा हूँ।
दर्द दर-दर का पिये मैं, कब तलक घुलता रहूँ।
अग्नि अंतस् में छुपाये, कब तलक जलता रहूँ।
वेदना का नीर पीकर, अश्रु आँखों से बहा।
हिम-शिखर की रीति-सा मैं, कब तलक गलता रहूँ।
तुम समझते पल रहा हूँ, मैं मगर,
दर्द का पलना बना मैं जा रहा हूँ।
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क्या बताएं आपसे हम - हुल्लड़ मुरादाबादी

क्या बताएं आपसे हम हाथ मलते रह गए
गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए
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सूर्य की अब... - कुमार शिव 

सूर्य की अब किसी को ज़रूरत नहीं, जुगनुओं को अँधेरे में पाला गया 
फ़्यूज़ बल्बों के अद्भुत समारोह में, रोशनी को शहर से निकाला गया 
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रखकर अपनी आंख में... - गुलशन मदान

रखकर अपनी आंख में कुछ अर्जियां, तुम देखना 
बस मिलेंगी कागजी हमदर्दियां, तुम देखना 
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एक दरी, कंबल, मफलर  - अशोक वर्मा

एक दरी, कंबल, मफलर, मोज़े, दस्ताने रख देना 
कुछ ग़ज़लों के कैसेट, कुछ सहगल के गाने रख देना 
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ख़्वाब छीने, याद भी...  - कमलेश भट्ट 'कमल' 

ख़्वाब छीने, याद भी सारी पुरानी छीन ली 
वक़्त ने हमसे हमारी हर कहानी छीन ली। 
...

ओ देस से आने वाले - अख़्तर शीरानी

ओ देस से आने वाले बता
किस हाल में है याराने-वतन? 
क्‍या अब भी वहाँ के बाग़ों में मस्‍ताना हवायें आती हैं?
क्‍या अब भी वहाँ के परबत पर घनघोर घटायें छाती हैं?
क्‍या अब भी वहाँ की बरखायें वैसे ही दिलों को भाती हैं?
ओ देस से आने वाले बता!
...

हिन्दी गीत  - डॉ माणिक मृगेश 

हिन्दी भाषा देशज भाषा, 
निज भाषा अपनाएँ।
खुद ऊँचा उठें, राष्ट्र को भी--  
ऊँचा ले जाएँ॥ 
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पगले दर्पण देख  - नसीर परवाज़

कितना धुंधला कितना उजला तेरा जीवन देख 
पगले दर्पण देख 
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