किसी नगर मे एक राजा राज था। उसकी एक रानी थी। रानी को कपड़े और गहनों का बड़ा शौक था। कभी सोने का करनफूल चाहिए तो कभी हीरे का हार, कभी मोतियों की माला चाहिए तो कभी कुछ। कपड़ों की तो बात ही निराली थी। भागलपुरी तसर और ढाके की मलमल के बिना उसे चैन नही पड़ता था। सोने के लिए फूलो की सेज। फूल भी कैसे? खिले नही, अधखिली कलियाँ, जो रात मे धीरे-धीरे खिलें। नौकर कलियाँ चुन-चुनकर लाते, दासियाँ सेज सजाती। एक दिन संयोग से अधखिली कलियों के साथ कुछ खिली कलियाँ भी आ गईं। अब तो रानी की बेचैनी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी पंखुड़ियाँ रानी के शरीर मे चुभने लगी। नींद गायब हो गई। दीपकदेव अपना उजाला फैला रहे थे। रानी की यह दशा देखकर उनसे न रहा गया। बोले, "रानी, अगर कभी मकान बनाते समय राजाओं को तसले भर-भरकर गिलावा और चूना देने की नौबत आ जाए तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तसलों का ढोना इन कलियों से भी ज्यादा अखरेगा?"
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लोक-कथाएं
क्षेत्र विशेष में प्रचलित जनश्रुति आधारित कथाओं को लोक कथा कहा जाता है। ये लोक-कथाएं दंत कथाओं के रूप में एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में प्रचलित होती आई हैं। हमारे देश में और दुनिया में छोटा-बड़ा शायद ही कोई ऐसा हो, जिसे लोक-कथाओं के पढ़ने या सुनने में रूचि न हो। हमारे देहात में अभी भी चौपाल पर गांववासी बड़े ही रोचक ढंग से लोक-कथाएं सुनते-सुनाते हैं। हमने यहाँ भारत के विभिन्न राज्यों में प्रचलित लोक-कथाएं संकलित करने का प्रयास किया है।
इस श्रेणी के अंतर्गत
फूलों की सेज
अक्ल का कमाल
एक बार एक सिपाही रिटायर होने के बाद अपने घर लौट रहा था। वर्षों घर से दूर नौकरी करने के बाद भी उसकी जेब खाली थी। उसका मन बड़ा उदास था। पिछले काफी अरसे से उसने अपने घरवालों की कोई खैर-खबर नहीं ली थी। वह तो यह भी नहीं जानता था कि उसके घर में कोई जिन्दा भी है कि नहीं। चलते-चलते वह एक गाँव में पहुँचा। तब तक रात हो चुकी थी। वह काफी थक गया था और उसे भूख भी जोर की लगी थी, अतः उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया।
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