कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास 
कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके पास 
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त
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कविताएं
इस श्रेणी के अंतर्गत
अकाल और उसके बाद
कुछ झूठ बोलना सीखो कविता!
कविते!
कुछ फरेब करना सिखाओ कुछ चुप रहना
वरना तुम्हारे कदमों पर चलनेवाला कवि मार दिया जाएगा खामखां
महत्वपूर्ण यह भी नहीं कि तुम उसे जीवन देती हो
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खेलो रंग अबीर उड़ावो - होली कविता
खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगावो ।
पर अति सुरंग लाल चादर को मत बदरंग बनाओ ।
न अपना रग गँवाओ ।
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दीवानी सी | कविता
एक औरत जो दफन बरसों से 
उसने न जाने कैसे 
सांसों के आरोह-अवरोह में 
कहीं सपने चुनने-बुनने 
आरंभ कर दिए...!
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अल्बेयह कैमू का अनूदित काव्य
हमने कुछ दिन हुए 'अल्बेयह कैमू' (Albert Camus) की कुछ अँग्रेजी पंक्तियाँ अपने फेसबुक पर प्रकाशित करके इनका हिन्दी भावानुवाद करने का आग्रह किया था। अल्बेयह कैमू एक फ्रेंच दार्शनिक, लेखक, नाटककार और पत्रकार थे। उन्हें 44 वर्ष की आयु में 1957 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
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सबके बस की बात नहीं है
प्यार भरी सौगात नहीं यह, कुदरत का अतिपात हुआ है । 
ओले बनकर धनहीनों के, ऊपर उल्कापात हुआ है।। 
फटे चीथड़ों में लिपटों पर, बर्फीली आँधी के चलते,
पत्थर बरस रहे धरती पर, साधारण बरसात नहीं है। 
ऐसे में सड़कों पर सोना, सबके बस की बात नहीं है।।
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रह जाएगा बाकी...
एक न एक दिन खत्म हो जाएंगे ये रास्ते भी
रह जायेगा बाकी..'मिलना' किसी का ही !
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मेरा सफ़र
जाह्नवी उसे मत रोको
जाने दो मेरी यादों के पार
वह एक लहर है, जो दूर तक जाएगी 
बहती हुई इच्छाओं के साथ
उसे जाने दो!
मैं भी कब तक रुकूँगा 
भावनाओं के तट पर?
मेरा अर्ध्य लो!
अगर वह मिले तो कहना 
मैंने थोड़ा इन्तज़ार किया
और फिर लौट गया अपने भाव-लोक में
एक पूरी गंगा लेकर!
लहरों को गिनना किसी के बस में नहीं है गंगे
मैं तो बस तुम्हारे साथ बहना चाहता हूँ पुण्यभागे!
बहना ही जीवन है भागीरथी!
लोक से लोकोत्तर में नहीं
लोकोत्तर से लोक में ...
कितना महनीय है यह सुख
मम से ममेतर होने का सुख!
कोई कुछ कहे/कहीं रहे
आकर बहे समभाव से!
यह मेरा है, यह तेरा है
नहीं, नहीं,अब यह सब नहीं
या तो सब तेरा या तो सब मेरा
कहीं कोई अवरोध नहीं, रोक नहीं
तुम मुझमें बहो गंगे!
इसी तरह बहती रहो!
अहरह! निरंतर!! सजल रसधार बनकर!!!
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पारित प्रस्ताव
चर्चों पर चर्चे भी बहुत हो गये 
पर्चों पर पर्चे भी बहुत हो गये 
और अब तो मेरे दोस्तो 
खचों पर खर्चे भी बहुत हो गये । 
काम नहीं चलेगा अब 
अध्याय में विराम से 
यात्रा में विश्राम से । 
हमने जो लिखा,
जो पढ़ा, 
जो सुना है
इस दौर की
जिस दौड़ को 
चुना है,
वह जाती है
उस सीढ़ी की ओर 
जो सीढ़ी जाती है 
नयी पीढ़ी की ओर ।
गति नहीं दी
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दैवीय रूप नारी
जो प्रेमशक्ति की मायावी ,
जाया बनकर उतरी जग में।
आह्लाद बढ़ाती हुई बढ़ी ,
बनकर छाया छतरी मग में।।
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लिखना ज़रूरी है...
लिखना ज़रूरी है 
खूब लिखिए 
कागज और कलम की 
बुनियाद 
मज़बूत कीजिए। 
क्योंकि
लिखना ज़रूरी है…
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