जब दाँत न थे तब दूध दियो अब दाँत भये कहा अन्न न दैहै।
जीव बसें जल में थल में, तिनकी सुधि लेइ सो तेरी हूँ लैहै।
जान को देत अजान को देत, जहान को देत सो तोहूँ को देहैं।
काहे को सोच करे मन मूरख सोच करे कछु हाथ न ऐहैं॥
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
बीरबल का सवैया
कुछ अनुभूतियाँ
दूर दूर तक फैला मिला आकाश
चारों ओर ऊँची पहाड़ियाँ
शांत नीरव वातावरण
दूर-दूर तक कोई कोलाहल न था।
शांति केवल शांति।
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रत्नावली के दोहे
नारि सोइ बड़भागिनी, जाके पीतम पास।
लषि लषि चष सीतल करै, हीतल लहै हुलास ॥ १ ॥
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सृजन पर दो हिन्दी रुबाइयां
अनुभूति से जो प्राणवान होती है,
उतनी ही वो रचना महान होती है।
कवि के ह्रदय का दर्द, नयन के आँसू,
पीकर ही तो रचना जवान होती है॥
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मुझे थाम लेना
महाकाल से भी प्रबल कामनाएं,
हैं विकराल भीषण अहम् की हवाएं,
ये पर्वत हिमानी हैं, ममता के आँचल,
नहीं तृप्त होते हैं तृष्णा के बादल,
ये भीषण बबंडर है कुंठा की दल-दल,
मुझे थाम लो इसमें धंसने से पहले,
मुझे थाम लेना बिखरने से पहले।
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हिंदी देश की शान
एकता की सूचक हिदी भारत माँ की आन है,
कोई माने या न माने हिदी देश की शान है।
भारत माँ का प्राण है
भारत-गौरव गान है।
सैकड़ों हैं बोलियाँ पर हिदी सबकी जान है,
सुंदर सरस लुभावनी ये कोमल कुसुम समान है।
हृदय मिलाने वाली हिदी नित करती उत्थान है,
कोई माने या न माने हिदी सत्य प्रमाण है।
भारत माँ की प्राण है,
भारत-गौरव गान है।
सागर के सम भाव है इसमें रस तो अमृतपान है,
मन को सदा लुभाती हिदी बहुरत्नों की खान है।
भाषा हिदी देश की बिदी, घर ये हिदुस्तान है,
कोई माने या न माने हिदी निज सम्मान है।
भारत माँ की प्राण है,
भारत-गौरव गान है।
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मैं करती हूँ चुमौना
कोहरे की ओढ़नी से झांकती है
संकुचित-सी वर्ष की पहली सुबह यह
स्वप्न और संकल्प भर कर अंजुरी में
इस उनींदी भोर का स्वागत,
मैं करती हूँ चुमौना।
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जैसे मेरे हैं...
जैसे मेरे हैं, वैसे सबके हों प्रभु
उसने सिर्फ आँखें नहीं दी,
दृष्टि भी दी,
चारों तरफ अंधकार हुआ,
दे दिया ,
ह्रदय में मणि का प्रकाश,
सुरंग थी, खाईयां थी और अंधेरी सर्पीली घाटियां,
तो मन में दे दिया,
अनंत आकाश।
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प्रवासी भारतीय तू... | कविता
प्रवासी भारतीय तू
अपनी पैतृक जड़ों से यूं जुड़ तू
भेड़ बकरी की तरह
मत कर अंधानुकरण यूँ..
अदम्य साहस, समर्पण, धैर्य से
लिख अपनी नई दास्तां तू..
प्रवासी भारतीय तू...
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प्रो. राजेश कुमार के दोहे
नव पल्लव इठलात हैं हर्ष न हिये समात।
हिल-डुल न्यौता देत हैं मौसम की क्या बात॥
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डॉ. संध्या सिंह की चार कविताएं
नयापन ज़िंदगी है
बासी का अंत है
सुबह नई है
तो यह बासीपन क्यों
यह उदासी क्यों?
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कसौटी
वो मेरे लिए ला सकता है
फलक के चाँद-तारे
नहीं ला सकता तो
क्राइसिस के दिनों में
गैस का सिलेंडर।
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कोई बारिश पड़े ऐसी... | ग़ज़ल
कोई बारिश पड़े ऐसी, जो रिसते घाव धो जाए
भले आराम कम आए, ज़रा सा दर्द तो जाए
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वो राम राम कहलाते हैं
अवधपुरी से जनकपुरी तक
प्रेम की गंगा बहाते हैं
वो राम राम कहलाते हैं।
राम ही माला, राम ही मोती
मन मंदिर वही बनाते हैं।
वो राम राम कहलाते हैं। ॥1॥
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मेरा दिल वह दिल है | ग़ज़ल
मेरा दिल वह दिल है कि हारा नहीं है
कहीं तिनके का भी सहारा नहीं है
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गीत गाने को दिए पर स्वर नहीं
दे दिए अरमान अगणित
पर न उनकी पूर्ति दी,
कह दिया मन्दिर बनाओ
पर न स्थापित मूर्ति की।
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सरल हैं; कठिन है | हास्य-व्यंग्य
सरल है बहुत चाँद सा मुख छुपाना,
मगर चाँद सिर का छुपाना कठिन है।
अगर नौकरी या कि धंधा मिला हो,
कि पहना हुआ सूट बढ़िया सिला हो,
सरल है बहुत ब्याह करना किसी से,
मगर ब्याह करके निभाना कठिन है।
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कैसी लाचारी | हास्य-व्यंग्य
हाँ! यह कैसी लाचारी
भेड़ है जनता बेचारी
सहना इसकी आदत है--
मुड़ती वहाँ, जहाँ जाती!
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बिटिया रानी
मेरे घर लौटने पर,
जब तुम दौड़कर मेरे गले लग जाती हो,
छलक उठता है मेरे नेह का दिया,
याद आती हैं वे सारी लड़कियाँ
जो इसी उम्मीद में निहारती थी,
अपने पिता को,
और कठकरेज़ पिता मुँह फेर लेते थे,
तुम्हें अंकवार लगाते,
लगता है मैं उन सब पर नेह लुटा रहा हूँ।
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गणतंत्र-दिवस
यह इनका गणतंत्र-दिवस है
तुम दूर से उन्हें देख कहोगे
गिनती सीखने की उम्रवाले बच्चे चार-पाँच
पकड़े हुए एक-एक हाथ में एक-एक नहीं, कई-कई
नन्हें काग़ज़ी राष्ट्रीय झंडे तिरंगे
लेकिन थोड़ा क़रीब होते ही
तुम्हारा भरम मिट जाता है
पचीस जनवरी की सर्द शाम शुरू-रात
जब एक शीतलहर ठेल रही है
सड़कों से लोगों को असमय ही घरों की ओर
वे बेच रहे हैं ये झंडे
घरमुँही दीठ के आगे लहराते
झंडे, स्कूल जानेवाले उनके समवयसी बच्चे जिन्हें पकड़ेंगे
गणतंत्र-दिवस की सुबह
स्कूली समारोह में
पूरी धज में जाते हुए
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सबके बस की बात नहीं है
प्यार भरी सौगात नहीं यह, कुदरत का अतिपात हुआ है ।
ओले बनकर धनहीनों के, ऊपर उल्कापात हुआ है।।
फटे चीथड़ों में लिपटों पर, बर्फीली आँधी के चलते,
पत्थर बरस रहे धरती पर, साधारण बरसात नहीं है।
ऐसे में सड़कों पर सोना, सबके बस की बात नहीं है।।
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मेरी आरज़ू रही आरज़ू | ग़ज़ल
मेरी आरज़ू रही आरज़ू, युँ ही उम्र सारी गुज़र गई
मैं कहाँ-कहाँ न गया मगर, मेरी हर दुआभी सिफ़र गई
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बीता पचपन | गीत
बीता पचपन, ऐसा मेल।
गुड्डा गुड्डी का जस खेल॥
खन रूठे, खन मानमनौवल,
गली मुहल्ला ठेलमठेल॥
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टूटी माला बिखरे मनके | गीत
टूटी माला बिखरे मनके, झुलस गये सब सपने।
रिश्ते नाते हुए पराये, जो कल तक थे अपने ॥
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