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कथा-कहानी |
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां। |
Articles Under this Category |
फंदा - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी |
[फीजी से फीजी हिंदी में लघुकथा] |
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सफेद गुड़ - सर्वेश्वर दयाल सक्सेना |
दुकान पर सफेद गुड़ रखा था। दुर्लभ था। उसे देखकर बार-बार उसके मुँह से पानी आ जाता था। आते-जाते वह ललचाई नजरों से गुड़ की ओर देखता, फिर मन मसोसकर रह जाता। |
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सैलाब | लघुकथा - लक्ष्मी शंकर वाजपेयी |
पिता की मृत्यु के बाद के सारे कार्य संपन्न हो चुके थे। अब तेरहवीं होनी थी और अगले दिन मुझे नौकरी पर वापस ग्वालियर रवाना हो जाना था.. बस एक ही डर बार बार मुझे बुरी तरह परेशान कर रहा था और उस दृश्य की कल्पना मात्र से सहम उठता था मैं.. और ये दृश्य था मेरी इस बार की विदाई का ..जब दुख का पहाड़ टूट पड़ा हो..हर बार ग्वालियर रवाना होने के वक्त माँ फूटफूटकर रोने लगती थीं.. और मैं दो तीन दिन अवसाद मे रहता था..मोबाइल भी नहीं थे उन दिनों..। यूं भी कोई भी रिश्तेदार आता तो बातचीत के दौरान माँ के आँसू ज़रूर निकलते। |
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ज़मीन आसमान | लघु कथा - रेखा जोशी |
आज अंजू सातवें आसमान पर उड़ रही थी ,बार बार वह अपने चाचा जी का धन्यवाद कर रही थी जो उसे शहर के इतने खूबसूरत जगमगाते स्थान पर ले कर आये थे । |
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विक्रमादित्य का न्याय - भारत-दर्शन |
विक्रमादित्य का राज था। उनके एक नगर में जुआ खेलना वर्जित था। एक बार तीन व्यक्तियों ने यह अपराध किया तो राजा विक्रमादित्य ने तीनों को अलग-अलग सज़ा दी। एक को केवल उलाहना देते हुए, इतना ही कहा कि तुम जैसे भले आदमी को ऐसी हरकत शोभा नहीं देती। दूसरे को कुछ भला-बुरा कहा, और थोड़ा झिड़का। तीसरे का मुँह काला करवाकर गधे पर सवार करवा, नगर भर में फिराया। |
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गुलेलबाज़ लड़का - भीष्म साहनी | Bhisham Sahni |
छठी कक्षा में पढ़ते समय मेरे तरह-तरह के सहपाठी थे। एक हरबंस नाम का लड़का था, जिसके सब काम अनूठे हुआ करते थे। उसे जब सवाल समझ में नहीं आता तो स्याही की दवात उठाकर पी जाता। उसे किसी ने कह रखा था कि काली स्याही पीने से अक्ल तेज़ हो जाती है। मास्टर जी गुस्सा होकर उस पर हाथ उठाते तो बेहद ऊंची आवाज़ में चिल्लाने लगता- "मार डाला! मास्टर जी ने मार डाला!" वह इतनी ज़ोर से चिल्लाता कि आसपास की जमातों के उस्ताद बाहर निकल आते कि क्या हुआ है। मास्टर जी ठिकक कर हाथ नीचा कर लेते। यदि वह उसे पीटने लगते तो हरबंस सीधा उनसे चिपट जाता और ऊंची-ऊंची आवाज़ में कहने लगता- "अब की माफ़ कर दो जी! आप बादशाह हो जी! आप अकबर महान हो जी! आप सम्राट अशोक हो जी! आप माई-बाप हो जी, दादा हो जी, परदादा हो जी!" |
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एक और महाभारत - संदीप तोमर |
वो पांच भाई थे। मझले का नाम भीमा था। दंगे और दंगल दोनो का ही उस्ताद। घर में फाँकें लेकिन पहलवानी का इतना जुनून कि घर का आधा राशन खुद ही निपटा दे। भाई अपने हिस्से का राशन खाने की शिकायत करते तो कहता -"देखना एक दिन इस सारे राशन की कीमत अदा कर दूंगा और यही पहलवानी एक दिन हम सबको मालामाल कर देगी।" |
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परदा | कहानी - यशपाल | Yashpal |
चौधरी पीरबख्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोगा थे । आमदनी अच्छी थी । एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया । लड़कों को पूरी तालीम दी । दोनों लड़के एण्ट्रेन्स पास कर रेलवे में और डाकखाने में बाबू हो गये । चौधरी साहब की ज़िन्दगी में लडकों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में खास तरक्की न हुई; वही तीस और चालीस रुपये माहवार का दर्जा । |
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घुसपैठिये - ओमप्रकाश वाल्मीकि | Om Prakash Valmiki |
मेडिकल कॉलेज के छात्र सुभाष सोनकर की खबर से शहर की दिनचर्या पर कोई फर्क नहीं पड़ा था। अखबारों ने इसे आत्महत्या का मामला बताया था। एक ही साल में यह दूसरी मौत थी मेडिकल कॉलेज में। फाइनल वर्ष की सुजाता की मौत को भी आत्महत्या का केस कहकर रफा-दफा कर दिया गया था। किसी ने भी आत्महत्या के कारणों की पड़ताल करना जरूरी नहीं समझा था। लगता था जैसे इस शहर की संवेदनाओं को लकवा मार गया है। दो-दो हत्याओं के बाद भी यह शहर गूँगा ही बना रहा। |
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संसार की सबसे बड़ी कहानी - सुदर्शन | Sudershan |
पृथ्वी के प्रारम्भ में जब परमात्मा ने हमारी नयनाभिराम सृष्टि रची, तो आदमी को चार हाथ दिये, चार पाँव दिये, दो सिर दिये और एक दिल दिया । और कहा-"तू कभी दुःखी न होगा । तेरा संसार स्वर्ग है।" |
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मुक्ति - विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar |
उसे रह-रहकर बीते दिनों की याद आ जाती थी। उसका गला भर आता था और आँखों से आँसू टपकने लगते थे। उसे मुक्त हुए अभी बहुत दिन नहीं बीते थे। उसकी मुक्ति किसी एक की मुक्ति नहीं, बल्कि सारी जाति की मुक्ति थी। |
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स्वर किसका? - डॉ प्रेम नारायण टंडन |
ईश्वर की खोज करते-करते हारकर जीव ने कहा - बड़ी मूर्खता की मैंने जो उस निराकार को पाने की आशा से अब तक भटकता फिरा । |
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