जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।
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प्रतिनिधि निबंधों व समालोचनाओं का संकलन आलेख, लेख और निबंध.

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गिर जाये मतभेद की हर दीवार ‘होली’ में! - डा. जगदीश गांधी

 
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‘फीजी हिंदी’ साहित्य एवं साहित्यकार: एक परिदृश्य - सुभाषिनी लता कुमार | फीजी

‘फीजी हिंदी’ फीजी में बसे भारतीयों द्वारा विकसित हिंदी की नई भाषिक शैली है जो अवधी, भोजपुरी, फीजियन, अंग्रेजी आदि भाषाओं के मिश्रण से बनी है। फीजी के प्रवासी भारतीय मानक हिंदी की तुलना में, फीजी हिंदी भाषा में अपनी भाव-व्यंजनाओं को अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर पाते हैं। इसीलिए भारतवंशी साहित्यकारों ने अंग्रेजी भाषा के मोह को छोड़कर हिंदी में साहित्यिक कृतियाँ लिखनी प्रारंभ कीं। मातृभाषा के इसी प्रेम के फलस्वरूप फीजी हिंदी की साहित्यिक कृतियों का सृजन भी हुआ है, जिनमें रेमंड पिल्लई का ‘अधूरा सपना’ और सुब्रमनी का ‘डउका पुराण’ प्रमुख हैं।
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हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल - प्रो. राजेश कुमार

हम कभी-कभी शुद्धतावादी लोगों से सुनते हैं कि हिंदी में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। आपने इस तरह की सूची भी देखी होगी, जिसमें लोग उर्दू शब्दों के हिंदी पर्याय देते हैं और सुझाव देते हैं कि उनके स्थान पर हिंदी शब्दों का ही उपयोग करना ज्यादा उचित होगा।
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कैसे मनाएं होली?  - डॉ. वेदप्रताप वैदिक | Dr Ved Pratap Vaidik

होली जैसा त्यौहार दुनिया में कहीं नहीं है। कुछ देशों में कीचड़, धूल और पानी से खेलने के त्यौहार जरूर हैं लेकिन होली के पीछे जो सांसारिक निर्ग्रन्थता है, उसकी समझ भारत के अलावा कहीं नहीं है। निर्ग्रन्थता का अर्थ ग्रंथहीन होना नहीं है। वैसे हिंदुओं को मुसलमान और ईसाई ग्रंथहीन ही बोलते हैं, क्योंकि हिंदुओं के पास कुरान और बाइबिल की तरह कोई एक मात्र पवित्र ग्रंथ नहीं होता है। उनके ग्रंथ ही नहीं, देवता भी अनेक होते हैं। मुसलमान और ईसाई अपने आप को अहले-किताब याने ‘किताबवाले आदमी' बोलते हैं।
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थाईलैंड में हिंदी - शिखा रस्तोगी 

गूंजे हिंदी विश्व में स्वप्न हो साकार ,थाई देश की धरा से हिंदी की जय-जयकार
हिंदी भाषा का जयघोष है सात समुंदर पार, हिंदी बने विश्व भाषा दिल करे पुकार।
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आजकल देशभक्ति क्या है? भारत छोड़ो! - प्रीशा जैन

देशभक्ति: इस एक शब्द में काफी व्याख्याएं हो सकती हैं और इस वजह से मेरा मानना है कि इसे एक ही परिप्रेक्ष्य तक सीमित नहीं किया जा सकता । इसका अर्थ है किसी का देश के प्रति लगाव, किसी की देश के प्रति प्रतिबद्धता, किसी के देश के लिए काम करने का समर्पण और इसका मतलब किसी की देश के लिए बलिदान करने की इच्छा भी है । अब, क्या ये भावनाएं अलग हैं? ज़रुरी नहीं। यह सभी यह बताते है कि, किसी का एक लगाव जो अपने वतन और उसके लोगों से है और जो उसे अपने देश के विकास के लक्ष्य में अपना जीवन समर्पित करने को प्रेरित करता है । वे कई अलग-अलग तरीकों से ऐसा करते हैं, उनमें से कुछ ऐसे सैनिक बनते हैं जो देश की बेहतरी के लिए नीतियां और कानून विकसित करने वाले नागरिकों, राजनीतिक नेताओं, देश के युवाओं को पढ़ाने वाले शिक्षकों की रक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं, जबकि कुछ व्यापारी और किसान बनते हैं जो अपने देश के विकास के लिए योगदान करते हैं।
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पुतिन- ‘अग्नि दीक्षा’ से ‘अग्नि परीक्षा’ तक - डॉ कुमार कौस्तुभ

सोवियत युग के प्रमुख उपन्यास ‘अग्नि दीक्षा’ (How The Steel Was Tempered, अनुवाद- अमृत राय) की भूमिका में एन वेन्ग्रोव लिखते हैं-“ ‘अग्नि दीक्षा’ नये मानव के जन्म की कहानी है, समाजवादी युग के उस नये मनुष्य की, जो मानवता के सुख के लिए होनेवाले संघर्ष में सब कुछ करने की योग्यता अपने अंदर दिखलाता है, जो बड़े-बड़े काम अपने सामने रखता है और उन्हें पूरा करके दिखलाता है” (पृ. 20, 1981) । ये पंक्तियां कहीं-न-कहीं रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर माकूल बैठती हैं, जो सोवियत युग में ही पैदा हुये (1952), जिन्होंने सोवियत शासन को अपने उरूज पर देखा, सोवियत खुफिया सेवा केजीबी में नौकरी भी की (1975-1990), सोवियत संघ का विघटन (1991) भी देखा और 1996 से रूसी राजनीति और प्रशासन में सक्रिय रहते हुए न सिर्फ सत्ता के शिखर तक पहुंचे बल्कि रूस में सबसे ज्यादा लंबे समय तक शीर्ष पदों पर रहने का रिकॉर्ड भी कायम कर सकते हैं। पुतिन को जहां सोवियत रूस के विघटन के बाद बने रशियन फेडरेशन को कंगाली और खस्ताहाली से उबारकर नये सिरे से खड़ा करने का श्रेय जाता है, वहीं अपनी सख्त और आक्रामक नीतियों के कारण उन पर तानाशाही के भी आरोप लगते रहे। खासतौर से 2022 में 24 फरवरी के बाद से यूक्रेन पर रूसी हमलों को लेकर पुतिन की चौतरफा आलोचना शुरु हो गई।
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