Important Links
कहानियां |
कहानियों के अंतर्गत यहां आप हिंदी की नई-पुरानी कहानियां पढ़ पाएंगे जिनमें कथाएं व लोक-कथाएं भी सम्मिलित रहेंगी। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद, रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां। |
Articles Under this Category |
होली का उपहार - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand |
मैकूलाल अमरकान्त के घर शतरंज खेलने आये, तो देखा, वह कहीं बाहर जाने की तैयारी कर रहे हैं। पूछा--कहीं बाहर की तैयारी कर रहे हो क्या भाई? फुरसत हो, तो आओ, आज दो-चार बाजियाँ हो जाएँ। |
more... |
सती का बलिदान - डॉ माधवी श्रीवास्तवा | न्यूज़ीलैंड |
सती-- प्रजापति दक्ष की छोटी पुत्री सती। दक्ष ने माता आदि शक्ति की कठोर तपस्या के पश्चात वरदान स्वरूप सती को प्राप्त किया था। सती का जन्म शिव से मिलन के लिए ही हुआ था। |
more... |
अंतिम तीन दिन - दिव्या माथुर |
अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई; स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी। आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था; अब समय ही कहाँ बचा था कि वह सदा की भाँति सोफे पर बैठकर टेलिविजन पर कोई रहस्यपूर्ण टीवी धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियाँ लेती? हर पल कीमती था; तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया यह घर, ये सारा ताम झाम, और बस केवल तीन दिन? मजाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ? डॉक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी; ढाई या सीढ़े तीन दिन की क्यों नहीं? उसने तो यह भी नहीं पूछा। माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में; युद्ध स्तर पर। |
more... |
होली का मज़ाक | यशपाल की कहानी - यशपाल | Yashpal |
'बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें!'' किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा। |
more... |
उसकी औक़ात - हंसा दीप |
चेयर के चयन के परिणाम सामने थे। मिस्टर कार्लोस एक बार फिर विभागाध्यक्ष चुन लिए गए थे पर उनके चेहरे पर वह खुशी नहीं थी। हालाँकि फिर से कुर्सी मिलने में कोई संदेह तो नहीं था फिर भी एक अगर-मगर तो बीच में था ही। किसके मन में क्या चल रहा है, किसके अंदर चल रही सुगबुगाहट कब बाहर आ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता! बड़े तालाबों की छोटी मछलियों की ताकत का अंदाज़ लगाने के लिए कुछ प्रतिशत संदेह तो हमेशा रहता ही है। खास तौर पर जब कोई बड़ा परिणाम आने वाला हो तब तो कई बार छोटी-छोटी बातें भी अपना हिसाब माँग लेती हैं। ऐसे मौकों पर कोई भी अपने अंदर की भड़ास निकाल दे तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। |
more... |
छोटा सा शीश महल - अरुणा सब्बरवाल |
परेशान थी वह। परेशानियों जैसी परेशानी थी। दिल में एक दर्द जमा बैठा था। पिघलता ही नहीं। आकाश से बर्फ गिरती है। दो-तीन दिन में पिघल जाती है। किंतु कैसी पीड़ा है जिसके फ्रीजिंग प्वाइंट का कुछ पता नहीं। कमबख्त दर्द घुलता ही नहीं। पिघलकर बह क्यों नहीं जाता, पानी की तरह? घुल तो रही थी केवल आशा; रवि की पत्नी। |
more... |
तुम्हारी नन्दिनी! - नीलिमा टिक्कु |
नन्दिनी! ….हाँ वही थी तीस साल बाद अचानक उसे देखकर मेरे दिल की धड़कने बढ़ गईं थीं। कभी एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमें खायीं थीं हमने। हड़बड़ाती सी वह सामने से चली आ रही थी। प्लेन में केवल मेरे बगल वाली सीट ही खाली थी ज़ाहिर सी बात थी वो वहीं बैठती। मैं ज़बरन अख़बार में आँखें गड़ाये बैठा रहा। विंडो सीट पर निशा पसरी हुई थी। कॉलेज में नन्दिनी के साथ अकेले वक्त बिताने की चाह में जिस निशा से पीछा छुड़ाने के लिए मैं कई तरह के झूठ बोला करता था वही निशा मेरी पत्नी बनकर हमेशा के लिए मेरी जिंदगी में आ गयी थी और जिससे बेइंतिहा प्यार करता था वही नन्दिनी अब मेरी कुछ भी नहीं यहाँ तक की उससे मित्रता भी नहीं रही थी। निशा की उपस्थिति में उसके साथ बैठने में भी मैं असहज हो उठा था। ऐसा नहीं था कि निशा मुझ पर जबरन थोप दी गई थी या नन्दिनी से सम्बन्ध विच्छेद मुझे मजबूरी में करना पड़ा। उस वक्त मैंने ये निर्णय बहुत सोच समझ कर लिया था। मैं बेहद साधारण परिवार का इकलौता बेटा था। निशा एक बेहद पुरातनपंथी विचारधारा की लड़की थी इसके विपरीत नन्दिनी खुले दिमाग की मिलनसार लड़की थी। हमारे विचार परस्पर मिलते-जुलते थे। नन्दिनी और मेरे विषय एक से थे इसलिए हम पूरा समय कॉलेज में साथ ही रहते थे। निशा केवल पोलिटिकल साइंस के पीरियड में हमारे साथ होती थी। आरम्भ में निशा जबरन मुझ पर अधिकार जमाने की कोशिश किया करती थी, उसे मेरा और नन्दिनी का साथ फूटी आँख नहीं सहाता था। मैं बेबस सा केवल एक पीरियड के लिए निशा को जैसे-तैसे झेल पाता था। धीरे-धीरे निशा समझ गई थी कि मैं नन्दिनी से ही प्यार करता हूँ, तंग आकर उसने हमसे दूरी बना ली थी। नन्दिनी के पिता आसाम में व्यवसाय करते थे। |
more... |