साजन! होली आई है!
सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन ! होली आई है!
हँसाने हमको आई है!
साजन! होली आई है!
इसी बहाने
क्षण भर गा लें
दुखमय जीवन को बहला लें
ले मस्ती की आग-
साजन! होली आई है!
जलाने जग को आई है!
साजन! होली आई है!
रंग उड़ाती
मधु बरसाती
कण-कण में यौवन बिखराती,
ऋतु वसंत का राज-
लेकर होली आई है!
जिलाने हमको आई है!
साजन ! होली आई है!
खूनी और बर्बर
लड़कर-मरकर-
मधकर नर-शोणित का सागर
पा न सका है आज-
सुधा वह हमने पाई है !
साजन! होली आई है!
साजन ! होली आई है !
यौवन की जय !
जीवन की लय!
गूँज रहा है मोहक मधुमय
उड़ते रंग-गुलाल
मस्ती जग में छाई है
साजन! होली आई है!
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काव्य
इस श्रेणी के अंतर्गत
साजन! होली आई है!
एक बैठे-ठाले की प्रार्थना
लीडरी मुझे दिला दो राम,
चले जिससे मेरा भी काम।
कुछ ही दिन चलकर दलदल में फंस जाती है नाव,
भूख लगे पर दूना जोर पकड़ते मन के भाव--
कि मैं भी कर डालूँ कुछ काम,
लीडरी मुझे दिला दो राम ॥1॥
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ये बिछा लो आँचल में
भर कर लाया फूल हथेली, प्रिये बिछा लो आँचल में
कुछ गुथने को तत्पर हैं, कुछ उगने को आँगन में।
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गीता का सार
तू आप ही अपना शत्रु है
तू आप ही अपना मित्र,
या रख जीवन काग़ज़ कोरा
या खींच कर्म से चित्र।
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होली - मैथिलीशरण गुप्त
जो कुछ होनी थी, सब होली!
धूल उड़ी या रंग उड़ा है,
हाथ रही अब कोरी झोली।
आँखों में सरसों फूली है,
सजी टेसुओं की है टोली।
पीली पड़ी अपत, भारत-भू,
फिर भी नहीं तनिक तू डोली !
- मैथिलीशरण गुप्त
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खेलो रंग अबीर उड़ावो - होली कविता
खेलो रंग अबीर उड़ावो लाल गुलाल लगावो ।
पर अति सुरंग लाल चादर को मत बदरंग बनाओ ।
न अपना रग गँवाओ ।
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कृतज्ञ हूँ महामाया
अपनी कक्षाओं में घूम रहे हैं
असंख्य ग्रह और उपग्रह
जुगनुओं की तरह चमक रहे हैं तारे
आकाश गंगा के बीच
तुम्हें खोजता चला जा रहा हूँ मैं
जैसे कोई साधक जाता है
देवालय अपने आराध्य की अर्चना के लिए!
रत्नजड़ित अलौकिक पीताम्बरी को सम्भाले
तुम बिखेर रही हो अपनी कृपा.मुस्कान
जन्म लेती है एक नई सुबह
पेड़ों पर चहकती है चिड़िया
चटख कर खिलती है एक गुलाब की कली
तुम्हारा होना ही हर सृजन का मूल है देवि!
मैं बहुत कृतज्ञ हूँ
एक बच्चे की तरह तुम्हें निहारते हुए
तुम ब्रह्मांड में स्त्री हो महामाया!
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आओ होली खेलें संग
कही गुब्बारे सिर पर फूटे
पिचकारी से रंग है छूटे
हवा में उड़ते रंग
कहीं पर घोट रहे सब भंग!
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हुल्लड़ के दोहे
बुरे वक्त का इसलिए, हरगिज बुरा न मान।
यही तो करवा गया, अपनों की पहचान॥
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ढोल, गंवार...
मैंने अपनी पत्नी से कहा --
"संत महात्मा कह गए हैं--
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी!"
[इन सभी को पीटना चाहिए!]
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दायरा | हास्य कविता
एक बुढ्ढे को बुढ़ापे में इश्क का बुखार चढ़ गया
बुढिया को जीन्स-टॉप पहनाकर बीयर बार में ले गया
बोला, आज की पीढ़ी ऐसे ही रोमांस करती है
तू भी पी ले बीयर थोड़ा कम चढ़ती है।
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चलो कहीं पर घूमा जाए | गीत
चलो कहीं पर घूमा जाए,
थोड़ा मन हल्का हो जाए।
सबके, अपने-अपने ग़म हैं,
किस ग़म को कम आँका जाए।
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ओ मेरी साँसों के दीप !
विश्व सदन की जोती बनकर
जले सदा तू तारों बीच ।
है बस जीवन साध यही अब
ओ मेरी साँसों के दीप !
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हिसाबे-इश्क़ है साहिब | ग़ज़ल
हिसाबे-इश्क़ है साहिब ज़रा भी कम न निकलेगा,
कि कुछ आँसू बहाने से, ये दर्दो-ग़म न निकलेगा !
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लोग टूट जाते हैं | ग़ज़ल
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में
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बयानों से वो बरगलाने लगे हैं
बयानों से वो बरगलाने लगे हैं
चुनावों के दिन पास आने लगे हैं
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छन-छन के हुस्न उनका | ग़ज़ल
छन-छन के हुस्न उनका यूँ निकले नक़ाब से।
जैसे निकल रही हो किरण माहताब से।।
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जिंदगी | गीत
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई
लेने को पहुंचे जो फरिश्ते
टूट गये सब नाते-रिश्ते,
फिर रोके कुछ रूक नहीं पाया,
हाथ किसी के कुछ नहीं आया
सब देखते रहे, यह बात खुले आम हो गई
एक शाम जिंदगी तमाम हो गई
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जीत जाएंगे
हर तरफ मुश्किल बड़ी है,
स्वांस पर पहरा लगा है,
ये संभलने की घड़ी है।
हम नहीं इस दौर में आँसू बहाएंगे,
इक न इक दिन जीत जाएंगे॥
एक न एक दिन इस धरा पर
एक नई शुरुआत होगी,
आसमां में देखना तुम फिर
सुकून की रात होगी,
दिल मे फिर विश्वास होगा
होंठ पे मुस्कान होगी,
गुनगुनाती बारिशों में
खुशियों की फिर तान होगी।
झूमकर नाचेंगे फिर हम मुस्कुरायेंगे
एक न एक दिन जीत जाएंगे॥
जो समय के साथ जीना
सीख लेगा वो जीएगा,
विष शिवा के जैसे पीना
सीख लेगा वो जीएगा,
वो जीएगा जो मनुजता
का सही उद्देश्य समझे,
वो जीएगा जो प्रकर्ति
का सही संदेश समझे।
हम सभी मिलकर वही संदेश गाएंगे,
इक न इक दिन जीत जाएंगे॥
एक अंधी दौड़ में बस
हम तो दौड़े जा रहे थे,
क्या मनुजता क्या मधुरता
सब ही छोड़े जा रहे थे,
आदमी का आदमी से
प्यार था बस अर्थ का ही,
नेह के विश्वास के बंधन
को तोडे जा रहे थे।
हो नही ऐसा कभी सौगंध खाएंगे
एक न एक दिन जीत जाएंगे॥
--प्रिंस सक्सेना
ई-मेल : princegsaxena@gmail.com
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धीरे-धीरे प्यार बन गई
जाने कब की देखा-देखी, धीरे-धीरे प्यार बन गई
लहर-लहर में चाँद हँसा तो लहर-लहर गलहार बन गई
स्वप्न संजोती सी वे आँखें, कुछ बोलीं, कुछ बोल न पायीं
मन-मधुकर की कोमल पाखें, कुछ खोली, कुछ खोल न पायीं
एक दिवस मुसकान-दूत जब प्रणय पत्रिका लेकर आया
ज्ञात नहीं, तब उस क्षण मैंने, क्या-क्या खोया, क्या-क्या पाया
क्षण भर की मुसकान तुम्हारी, जीवन का आधार बन गई।
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