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आओ होली खेलें संग
कही गुब्बारे सिर पर फूटे
पिचकारी से रंग है छूटे
हवा में उड़ते रंग
कहीं पर घोट रहे सब भंग!
बुरा ना मानो होली है
हाँ जी, हाँ जी, होली है
करते बच्चे-बूढ़े तंग
बताओ कैसा है ये ढंग?
भाग रहा है आज कन्हैया
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श्रमिक हाइकु
ये मज़दूर
कितने मजबूर
घर से दूर!
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करता श्रम
आएंगे अच्छे दिन
पाले है भ्रम!
- रोहित कुमार 'हैप्पी'
...प्रोफेसर ब्रिज लाल
प्रोफेसर ब्रिज लाल प्रसिद्ध इंडो-फीजियन इतिहासकार थे। आप लंबे समय से निर्वासन में थे और वर्तमान में ब्रिस्बेन, ऑस्ट्रेलिया के निवासी थे।
प्रोफेसर ब्रिज लाल का जन्म 21 अगस्त 1952 लम्बासा, फीजी में हुआ था। कई स्थानों पर इनका नाम 'बृज लाल' भी लिखा हुआ है लेकिन इन्होंने स्वयं अपना नाम 'ब्रिज लाल' ही लिखा है। विदेश में पैदा हुए बहुत से भारतवंशियों के नामों में भ्रम की स्थिति रहती है।
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कलयुग | मुक्तक
कलयुग में पाई है बस यही शिक्षा
हर बात पर मांगें हैं अग्नि-परीक्षा
बुद्ध भी अगर आज उतरें धरा पर
मांगे ना देगा उन्हें कोई भिक्षा।
-रोहित कुमार 'हैप्पी'
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कंगारू के पेट की थैली
बहुत पुरानी बात है। उस समय कंगारू के पेट पर थैली नहीं होती थी। विज्ञान इस बारे में जो भी कहे लेकिन इस बारे में ऑस्ट्रेलिया में एक रोचक लोक-कथा है। बहुत पहले की बात है। एक दिन एक मादा कंगारू अपने बच्चे के साथ जंगल में घूम रही थी। बाल कंगारू पूरी मस्ती में था। वह जंगल में पूरी उछल-कूद कर रहा था।
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हिंदी पर दोहे
बाहर से तो पीटते, सब हिंदी का ढोल।
अंतस में रखते नहीं, इसका कोई मोल ।।
एक बरस में आ गई, इनको हिंदी याद।
भाषण-नारे दे रहे, दें ना पानी-खाद ।।
अपनी मां अपनी रहे, इतना लीजे जान ।
उसको मिलना चाहिए, जो उसका सम्मान ।।
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वो था सुभाष, वो था सुभाष
वो भी तो ख़ुश रह सकता था
महलों और चौबारों में।
उसको लेकिन क्या लेना था,
तख्तों-ताज-मीनारों से!
वो था सुभाष, वो था सुभाष!
अपनी माँ बंधन में थी जब,
कैसे वो सुख से रह पाता!
रण-देवी के चरणों में फिर
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तेरी मरज़ी में आए जो
तेरी मरज़ी में आए जो, वही तो बात होती है
कहीं पर दिन निकलता है, कहीं पर रात होती है
कहीं सूखा पड़ा भारी, कहीं बरसात होती है
तेरी मरज़ी में आए जो, वही तो बात होती है
कभी खुशियों भरे थे दिन, कभी बस पीड़ होती है
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ऐसे थे रहीम
रहीम दान देते समय आँख उठाकर ऊपर नहीं देखते थे। याचक के रूप में आए लोगों को बिना देखे, वे दान देते थे। अकबर के दरबारी कवियों में महाकवि गंग प्रमुख थे। रहीम के तो वे विशेष प्रिय कवि थे। एक बार कवि गंग ने रहीम की प्रशंसा में एक छंद लिखा, जिसमें उनका योद्धा-रूप वर्णित था। इसपर प्रसन्न होकर रहीम ने कवि को छत्तीस लाख रुपए भेंट किए।
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स्वयं से
आजकल
तुम
धीमा बोलने लगी
या
मुझे
सुनाई देने लगा
कम?
आजकल
तुम्हारी आवाज
सुनाई नहीं देती!
कहते हैं-
आत्मा
दिखाई नहीं देती।
- रोहित कुमार ‘हैप्पी'
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