हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

ये देश है विपदा में

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 डॉ रमेश पोखरियाल निशंक

देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ।
सब कुछ न्यौछावर कर दो,
देशभक्ति मन में भर दो,
तूफ़ानों के इस रस्ते में, साथी गीत विजय के गाओ,
देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ।

विपदा में तुम डिगो नहीं,
तूफ़ानों में झुको नहीं,
मर-मिट जाएँ, रुकें न पल भी, व़्ाफ़सम देश की खाओ,
देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ।
देशद्रोह अब टिके नहीं,
देशप्रेम अब बिके नहीं,
गूँज उठो तुम, भारत की अब दिशा-दिशा में जाओ,
देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ।

चैन की बंसी को फेंको,
लुटता चमन न अब देखो,
मातृभूमि हित मर मिट जाओ, ये जन्म अमरता का पाओ,
देश हमारा है विपदा में, साथी तुम उठ जाओ।

-रमेश पोखरियाल ‘निशंक'
[मातृभूमि के लिए]

 

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