अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़ दोनों मूरख, दोनों अक्खड़ हाट से लौटे, ठाठ से लौटे एक साथ एक बाट से लौटे।
बात-बात में बात ठन गई बाँह उठी और मूँछें तन गईं इसने उसकी गर्दन भींची उसने इसकी दाढ़ी खींची।
अब वह जीता, अब यह जीता; दोनों का बढ़ चला फजीता; लोग तमाशाई जो ठहरे सबके खिले हुए थे चेहरे।
मगर एक कोई था फक्कड़ मन का राजा कर्रा-कक्कड़; बढ़ा भीड़ को चीर-चार कर बोला 'ठहरो' गला फाड़ कर।
अक्कड़ मक्कड़ धूल में धक्कड़ दोनों मूरख दोनों अक्खड़ गर्जन गूँजी, रुकना पड़ा, सही बात पर झुकना पड़ा।
उसने कहा सधी वाणी में डुबो चुल्लू भर पानी में ताकत लड़ने में मत खोओ चलो भाई चारे को बोओ!
खाली सब मैदान पड़ा है, आफत का शैतान खड़ा है, ताकत ऐसे ही मत खोओ चलो भाई चारे को बोओ।
सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी दोनों जैसे पानी-पानी लड़ना छोड़ा अलग हट गए लोग शर्म से गले छट गए।
सबकों नाहक लड़ना अखरा ताकत भूल गई तब नखरा गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़ खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़।
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़ दोनों मूरख, दोनों अक्खड़।
--भवानी प्रसाद मिश्र |