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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,वह कभी नहाती थी धँसकर,आँखें रह जाती थीं फँसकर,कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,फिर भी अपने में रहती थी,सबकी सुनती थी, सहती थी,देती थी सबके दाँव, बंधु!
- निराला
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