हिंदी साहित्य की कई विधाओं का आरंभ आज़ादी के बाद हुआ। नई कहानी और नई कविता का नाम तो इसमें प्रमुख है ही, दलित आदिवासी और स्त्री विमर्स जैसा दौडर भी आज़ादी के बाद ही व्यवस्थित रूप पर हमारे सामने आया। आज़ादी के पूर्व मूल रूप से एक चुनौती थी देश को स्वतंत्र करना, किंतु आज़ादी के बाद युद्ध, अकाल, सांप्रदायिकता बंटवारा, निर्वासन जैसी कई चुनौतियां हमारे सामने आती चली गईं। हमने आज़ादी से जो सपने देखे थे देश उस उम्मीद पर खड़ा नहीं उतर रहा था। इस तरह जब स्थितियां बदलीं तो साहित्य के मूल्य और प्रतिमान भी बदलते चले गए।
हिंदी ग़ज़ल भी मूल रूप से आज़ादी के बाद की शायरी है,इसलिए जो घुटन, निराशा,अवसाद, दर्द जहां समकालीन कविता में है,वहीं ये पीड़ा ग़ज़लों में भी दिखाई पड़ती है। अंतर यह है कि समकालीन कविता का जुड़ाव जन मानस से नहीं हो सका,पर ग़ज़ल अपनी लयात्मकता, प्रस्तुतीकरण और छंद रचना के कारण जनसमूह पर राज करने लगी।कहने को हम कह सकते हैं कि हिन्दी ग़ज़ल की परम्परा ख़ुसरो से कबीर होते हुए निराला के साथ दुष्यंत तक पहुंचती है,पर यह भी सच है कि कबीर आदि की ग़ज़लें उस अनुपात में नहीं है जहां से कोई विधा स्थापित होती है।
हिंदी में ग़ज़ल उर्दू से आई,पर हिंदी ग़ज़ल ने उर्दू से अपनी बनावट ली, बुनावट उसकी अपनी है। उर्दू में जो ग़ज़ल आनंद के लिए लिखी गई थी हिंदी में वह ग़ज़ल आमजन के लिए लिखी जाने लगी। हिंदी गजल ने उन तकलीफों को छुआ जिससे आम जनता दो चार हो रही थी। ग़ज़ल ने समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया उसकी विसंगतियों की तरफ इशारा किया, और सत्ता के विरोधाभासी चरित्र की परतें खोल कर रख दीं।दूसरी विधाओं में जहां सिर्फ प्रेम की रचनाएं हो रही थीं,वहीं हिंदी का शायर आपातकाल का विरोध कर रहा था। हिंदी ग़ज़ल ने प्रेम के लहजे को नहीं व्यंग्य के लहजे को अपनाया, और इस प्रकार उस निरंकुश शासन व्यवस्था पर सीधे-सीधे प्रहार किया।
ज़ाहिर है जब हम लीक से हटकर बात करते हैं तो उसका विरोध भी होना लाज़िम होता है।
समकालीन कविता के सामने हिंदी ग़ज़ल एक चुनौती के रूप में सामने आती है।इसी कारण नई हिंदी कविता के पैरोकार बड़े-बड़े आलोचकों ने इस सिन्फ़ को ख़ारिज करना शुरू किया, और आज भी हिंदी कविता की परंपरा में ग़ज़ल को दरकिनार किया जा रहा है।गरचे अब स्थितियां बहुत बदल गई हैं।ग़ज़ल एक सशक्त विधा के रूप में लोगों के सामने आ चुकी है।
जब हिंदी में ग़ज़ल आई तो चुनौतियां गैरों से भी मिलीं और विरोध अपनों से भी हुआ। उर्दू का शायर जहां हिंदी में ग़ज़ल स्वीकार नहीं करता था,वहीं हिंदी के आलोचक भी ग़ज़ल को काव्य की विधा के तौर पर मानने के लिए तैयार नहीं थे। हरिवंश राय बच्चन ने तो यहां तक कह दिया था कि हिंदी में ग़ज़ल लिखी ही नहीं जा सकती।
पहल और कदंबिनी जैसी मशहूर पत्रिकाएं लगभग घोषणा कर चुकी थीं कि वह ग़ज़लें नहीं छापतीं। समकालीन भारतीय साहित्य ग़ज़ल को कुंठा के साथ स्वीकारती थीं। ज्ञानोदय, हंस और वागर्थ जैसी पत्रिकाओं ने बहुत बाद में ग़ज़ल देना शुरू किया।धर्मयुग ने उस समय एक साथ दुष्यंत की आठ ग़ज़लें छाप कर एक नया विमर्श पैदा कर दिया था।ऐसी भी कथा प्रधान महत्वपूर्ण पत्रिकाएं थीं जो ऐलान कर चुकी थी कि वह कविताओं में पारिश्रमिक नहीं देते।
आचार्य शुक्ल से लेकर गुलाब राय डॉ।नागेंद्र, बच्चन सिंह आदि किसी ने भी हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते हुए ग़ज़ल का ज़िक्र तक नहीं किया। इधर प्रकाशित हुई डॉ।मोहन अवस्थी की किताब हिंदी साहित्य का इतिहास में भले ग़ज़ल पर थोड़ा सा वर्णन मिलता है,पर वह भी दुष्यंत के आगे के ग़ज़लकारों को नहीं देख पाते हैं, जबकि हिंदी साहित्य के ऐसे इतिहास में अकविता और नकेनवादी कविता का ज़िक्र होता है, जिसकी कोई स्वस्थ परंपरा कभी नहीं रही, पर गजल का नाम आते ही उन्हें चिंता सी महसूस होने लगती है।
असल में ग़ज़ल ने हिंदी कविता को विलुप्त होने से बचाया। गजल वह आलोक स्तंभ है जिसे छुपा कर नहीं रखा जा सकता। यह ग़ज़ल जब बारात में होती है तो दुल्हन बन जाती है, और जो काग़ज़ के पन्नों में आ जाती है तो चांदनी बन कर बिखर जाती है।एक समय में जब कहानियों की तरह कविताएं लिखी जाने लगीं तो एक पढ़ा लिखा वर्ग भी उसे समझने से क़ासिर हो गया। उसे पढ़ते हुए कविता का कोई आनंद नहीं मिलता था। किसी भी कविता की अपनी शर्ते हैं।वह कविता है तो कम से कम उसे कहानी से अलग होना चाहिए था।ग़ज़ल छंद के साथ श्रोताओं के क़रीब आती है, क्योंकि ग़ज़ल में सिर्फ छंद ही नहीं है उसमें एक अर्थगाम्भीर्य भी है,लहजा भी है और मूड भी इसमें गज़लीयत है,और सबसे बड़ी बात पाठक को प्रभावित करने की क्षमता है। एक शेर पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा लगता है कि यह उसके ही दुख- दर्द का बयान है। इसमें उसकी अपनी ज़िदगी की तल्खियां मौजूद हैं।
ऐसा नहीं है कि यह मामला सिर्फ हिंदी शायरी का है। उर्दू शायरी में तरक्की पसंद शायर ग़ज़ल का विरोध करते रहे। मौलाना अल्ताफ़ हुसैन हाली को तो ग़ज़ल की विधा बेढंगी ही लगती थी।अख्तरुल ईमान ने तो ग़ज़लें न लिखने की क़सम ही खा ली थी,पर इस विरोध का कोई व्यापक असर नहीं हुआ। उर्दू शायरी ग़ज़लों की मुरीद थी इसलिए उसका इतिहास शायरों से भरा हुआ है, और हमारा इतिहास शायरों से हटा हुआ है।
हिंदी में जब दुष्यंत आए तो लोगों को कविता की ताक़त का पता चला। एक आदमी जब शेर लिखता है और उसमें जिस बूढ़े का जिक्र करता है,उस बूढ़े का नाम पूछने के लिए उपराष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को उसे सामने बुलाना पड़ता है।यह वही दुष्यंत है जिनकी शायरी बाज़ाब्ता ऐलान करती है -कभी तालाब से मछली बदलने की,कभी निज़ाम बदलने का तो कभी कुंभालाए हुए फूल बदलने का। दुष्यंत ने साफ़ कहा था सिर्फ पोशाक या शैली बदलने के लिए उन्होंने ग़ज़लें नहीं लिखी। दुष्यंत की गग़ज़लें जन- मानस के लिए थी। उन्होंने मंच के लिए ग़ज़लें नहीं रची थी। उनकी ग़ज़लों में जो आब और ताब है वह उन्हें ग़ज़ल सम्राट की पदवी से विभूषित करता है। दुष्यंत के अंदर जो तकलीफ़ है वह एक विद्रोह बनाकर हमारे सामने आती है। तब यह शायर लिखता है -
दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें
सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया
और फिर यह भी कि--
कभी मचान पे चढ़ने की आरज़ू की है
कभी ये डर कि यह सीढ़ी फ़िसल न जाए कहीं
दुष्यंत अपनी शायरी में समाज की संगति और विसंगति को दिखलाते हैं। ऐसा नहीं है कि उनकी शायरी का निशाना सिर्फ सत्ता वर्ग बनता है, बल्कि दुष्यंत उसे आदमी की भी खैर -खबर लेते हैं जो सिर्फ कठपुतलियों की तरह नाच रहा है-
पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए
ऐसा नहीं है कि इस तरह खुलेआम लिखने वाला यह शायर विरोधियों का शिकार नहीं बना। नौकरी करते हुए उनका बार-बार तबादला कर दिया जाता था।यही त्रासदी दिनकर के साथ भी हुई।
दुष्यंत ने जो संघर्ष को झेला था,वही संकट ग़ज़ल की ताक़त बन गई थी। दुष्यंत के बाद भी हिंदी शायरों की जो पीढ़ी तैयार हुई उसने तमाम विरोधों और अवरोधों के बीच हिंदी ग़ज़लें लिखना जारी रखा, और एक ऐसा वक्त भी आया जब ग़ज़ल पर नामवर सिंह और विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे आलोचकों ने भी लिखना शुरू कर दिया।
आज भी हिंदी ग़ज़ल के सामने कई प्रश्न खड़े हैं,भाषा से लेकर शिल्प और संरचना तक। कथ्य को लेकर भी प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। आज़ाद ग़ज़ल के नाम पर भी कुछ लोग बकवास कर रहे हैं। ग़ज़ल इस आंतरिक और वाह्य विरोध का मुक़ाबला करती हुई मज़बूती के साथ लगातार आगे बढ़ रही है।
ग़ज़ल की भाषा को लेकर भी हिंदी ग़ज़ल के दो प्रतिमान हैं।एक वर्ग जहां ग़ज़ल में शुद्ध हिंदी -संस्कृत शब्दों का पैरोकार हैं तो दूसरे वर्ग के ग़ज़लकारों ने हिंदुस्तानी बोली को मज़बूती से अपनाया है।
असल में ग़ज़ल जब आम लोगों की तकलीफों और चिंताओं को लेकर लिखी गई तो उसकी भाषा भी उसी आवाम की होनी चाहिए। जानबूझकर ग़ज़लों को धदुरूह बनाने से उसमें वह संप्रेषणीयता नहीं आ सकेगी हिंदी ग़ज़ल जिसके लिए रची गई है।
ग़ज़ल अगर महबूब की भाषा है तो महबूब की ज़बान हमेशा आसान रही है। हिंदी ग़ज़ल की भी वही मानक भाषा हो सकती है जिसे दुष्यंत,अदम और जहीर ने अपनाया था। दुष्यंत और अदम गोंडवी जैसे शायर इसलिए भी लोगों के क़रीब आ सके कि उन्होंने शायरी उसी की ज़बान में की। आज भी हिंदी के जाने-माने शायर इसी भाषा में ग़ज़लें लिख रहे हैं। प्रश्न यह नहीं है कि यह शब्द किस भाषा का है, प्रश्न यह है कि उस शब्द से जनता का जुड़ाव कितना है। जनता अगर सिनेमा हॉल समझ रही है तो उसे चलचित्र कहने की बेजा ज़रूरत नहीं है।
ग़ज़ल का अपना एक लहजा भी है, जब हम चन्द्रसेन विराट की तरह ग़ज़ल लिखते हैं -
जीव ईश्वर का अनविल नित्य चेतन अंश है
द्वंद से होती प्रगट निर्द्वंद की अवधारणा
तो न यह सलीक़े का शेर बन पाता है और ना इसमें शेरीयत आती है।
ठीक इसी तरह ग़ज़ल का अपना एक छंद विधान भी है। उसका अपना स्वरूप फॉर्म और संरचना है। बहर का कोई हिंदी नामकरण कर देने से काफिया को समान्त और रदीफ़ को पदांत नाम दे देने मात्र से ग़ज़ल के तकाज़े नहीं बदल जाते। बहर ग़ज़ल की रीढ़ है जिसके बिना इस ग़ज़ल रूपी महबूबा का शरीर शिथिल पड़ जाता है, पर यह समझना भी जरूरी है कि ग़ज़ल सिर्फ शिल्प नहीं है उसमें कथ्य का होना भी बहुत ज़रूरी है। प्रोफेसर वशिष्ठ अनूप कहा करते हैं कि ग़ज़ल के शिल्प के लिए कथ्य की हत्या नहीं की जा सकती।
ग़ज़ल के हर शेर को अनुभव,गहराई, बिनाई और तकनीक की दरकार होती है। ग़ज़ल कभी सतही नहीं हो सकती। भरपाई के शेर ग़ज़ल में दोष माने गए हैं।उसमें बातों की गंभीरता निहायत ज़रूरी है। फ़ैज़ अहमद फैज़ इसे मूड की शायरी कहते थे। इसे जबरदस्ती नहीं लिखी जा सकती। अरबी में कहावत है कि जिसे सौ शेर याद हो वही एक शेर लिखकर देखे। जहीर कुरैशी ने एक बार मुझे कहा था कि हिंदी के ज्यादातर ग़ज़लकारों की शायरी जल्दबाज़ी में लिखी गई शायरी है।
हिंदी ग़ज़ल के सामने कई चुनौतियां हैं। सबसे पहले उसे हिंदी कविता में स्थापित होना है।ग़ज़ल का एक मानक तय करना है।एक परिभाषा और भाषा तय करनी है। गीतिका मुक्तिका, तेवरी,द्वीपदी, हजल आदि का नाम देने से बेहतर है ग़ज़ल को ग़ज़ल ही रहने दिया जाए,जो जन सामान्य में स्वीकृत है। कवि त्रिलोचन ने एक स्थान पर लिखा है कि हिंदी ग़ज़ल शुद्ध हिंदी का बोझ नहीं सह सकती। ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसमें कथ्य की गहराई बिनाई और दानाई की ज़रूरत पड़ती है। हिंदी ग़ज़ल आज इसलिए लोकप्रिय है कि वह हमारी संवेदनाओं को छू रही है। हिंदी के कई कवि ग़ज़ल की तरफ़ मुतासिर हो रहे हैं। विभिन्न विश्वविद्यालयों में ये शोध का रुचिकर विषय रहा है। पत्र- पत्रिकाओं के ग़ज़ल विशेषांक सबसे ज्यादा बिक रहे हैं। आज भी कारखाना,अलावा संवदिया और नया ज्ञानोदय का ग़ज़ल विशेषांक तलाशा जा रहा है। हिंदी में लगातार दस से अधिक महत्वपूर्ण ग़ज़लकारों की साहित्य साधना पर मोटी -मोटी किताबें मौजूद हैं।
हिंदी ग़ज़ल में सिर्फ व्यवस्था का विरोध नहीं है। उसकी दृष्टि समाज के हर कमियों और नाकामियों पर है अनिरुद्ध सिंहा लिखते हैं--
वेदना में क्रोध की आवाज़ है हिंदी ग़ज़ल
एक प्रबल आवेग का अंदाज़ है हिंदी ग़ज़ल
है जिन्हें भी प्यार कविता से कहो जाकर पढ़े
छंद उत्सव के लिए हर साज़ है हिंदी ग़ज़ल
-अनिरुद्ध सिन्हा
डी एम मिश्र का मानना है -
ग़ज़ल ग़ज़ल है न उर्दू है ये न हिंदी है
लिबास छोड़ के देखो कि रूह कैसी है
-डी एम मिश्र
हिंदी ग़ज़ल पर अपना मंतव्य हरेराम समीप यों देते हैं -
हिंदी ग़ज़ल कहो कि इसे रेख़्ता कहो
कब खींच कर लकीर अलग होगी शायरी
अभिषेक कुमार सिंह अपना विचार बिल्कुल अलग तरह से इस शेर में पेश करते हैं -
कहने लगी हैं अब तो रिवायत की बेड़ियाँ
हिंदी ग़ज़ल ने अपना ही आकाश रच लिया
-अभिषेक सिंह
इस प्रकार हम कर सकते हैं की हिंदी ग़ज़ल हिंदी कविता परंपरा में सबसे आगे खड़ी है। अपनी कहन शैली, लबो लहजे,प्रस्तुतीकरण,मुहावरे, तकनीक और कथ्य के कारण इसने स्वयं अपना स्थान निर्धारण किया है। यह ऐसे शेर हैं जो सीधे हमारे दिल में उतर जाते हैं,और हमें लगता है यहां सिर्फ हमारा और हमारा ही ज़िक्र है।ग़ज़ल के साथ हिंदी कविता में छंद की वापसी तो हुई ही,वह कविता भी बच गई जिसके मरने की घोषणा कर दी गई थी। आज हिंदी ग़ज़ल के पास कई ऐसे शायर हैं जो हिंदी ग़ज़ल को अपने मुक़ाम तक ले जा रहे हैं। उनकी शायरी हमसे सीधे जुड़ती है,इसलिए पाठक भी उससे सीधा कनेक्ट हो जाता है।आप भी कुछ शेर देखें--
धरती आग हुई जाती है फिर गुस्से में
ऐसा लगता है हम सारे जल जाएंगे
-कमलेश भट्ट कमल
इन दिनों ही ज़रूरी बहुत काम है
इन दिनों आपकी छुट्टियां चल रहीं
-डॉ भावना
किसी धुन में किसी लय में किसी कलकल में रहना है
हमेशा ही यहां मुझको नदी के जल में रहना है
-विनय मिश्र
दांत खाने के अलग थे और दिखाने के अलग
लोग हाथी की तरह व्यवहार भी करते रहे
-ज़हीर कुरैशी
हंसी ख़ामोश हो जाती ख़ुशी ख़तरे में पड़ती है
यहां हर रोज़ कोई दामिनी ख़तरे में पड़ती है
-ओमप्रकाश यती
मैं था तन्हा एक तरफ़
और ज़माना एक तरफ़
-विज्ञान व्रत
नई तहज़ीब जब निर्वस्त्र होती जा रही हर दिन
सलीक़ेदार औरत गांव वाली याद आती है
-वशिष्ठ अनूप
सूरज के पांव से मुझे छाला नहीं मिला
जुगनू से आसमां को उजाला नहीं मिला
-राहुल शिवाय
कहना ना होगा कि हिंदी ग़ज़ल आज जहां खड़ी है,वहां अब उसे पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि और चीज़ों को अगर छोड़ भी दें तो हिंदी ग़ज़ल के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले आज ख़ुद उस काफ़िले में शामिल हैं।
- डॉ ज़ियाउर रहमान जाफ़री
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