हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

तितली और ततैया (कथा-कहानी)

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Author: डॉ आरती ‘लोकेश’

तितली और ततैया

आज फिर कुसुम को तितलियाँ दिखीं। आजकल तितलियाँ आस-पास कुछ अधिक ही मंडराने लगी हैं, वह सोच में पड़ गई। उसे तितलियाँ बहुत पसंद हैं और रंगों के चाव में तितली के पंख पकड़ने वाले उतने ही नापसंद।  
 
दमकल की लाल गाड़ी अपनी खंदक में घुसी और एक ही बार में अनुशासित बालक-सी सही जगह हाथ बाँधकर खड़ी हो गई। इंजन बंद कर कुसुम फायरटैंडर चालक की सीट से नीचे उतरी। नीली वर्दी में लिपटी सांवलकाय कुसुम को अगली दस खंदकों में कुछ और आज्ञाकारी सिंदूरी वाहन अपने-अपने चालकों के इशारों पर शांति का दान करते दिखे। कुसुम ने पलटकर अपने वाहन पर दृष्टि डाली। क्या सारा शोर उसके वाहन से ही था? या फिर यह शोर उसके अंतस में मचा हुआ था? नज़रें कहीं और अटकी थीं और आँखें बढ़ते कदम को पग-पग पर नाप रही थीं। कान मनस के नाद का मनन करते थे। 

दफ्तर जाने के रास्ते की क्यारियाँ पीले फूलों से अटी पड़ीं थीं। सूरजमुखी पर बैठी पंचरंगी, सतरंगी तितलियाँ फिर उसे अपनी ओर आकर्षित करने लगीं। आकर्षण का केंद्र तो वह स्वयं थी। अग्निशमन सेवा में अकेली स्त्री। कुशल चालक, निडर कर्मी, अदम्य साहसी; सम्मोहक, मुँहफट और दंभी। 

आपत सेवा देने के बाद रिपोर्ट लिखने अफसर के कमरे का रुख करना ही पड़ता था। कमरे के बाहर ‘सौरभ अभयंकर’ के नाम की तख्ती पर सौम्य तितली बैठी मिली। सौरभ से कौन-सा पराग मिल रहा होगा, जब तक इसका उत्तर सोचती, वह सौरभ के सामने थी। सौरभ के जिज्ञासामय चक्षु कुसुम के नेत्रों से कुछ रिपोर्ट लेने के इच्छुक थे। रजिस्टर सामने की केबिनेट पर रखा होता था। कुसुम ने किसी इच्छा पर ध्यान न देते हुए रजिस्टर निकाला और खड़े-खड़े ही रिपोर्ट लिख दी। पेन को रजिस्टर के बीच में दबाकर रजिस्टर बंद कर दिया। सौरभ की ओर उसकी पीठ रही। उसी दिशा में खड़े से वह बाहर निकलने को उद्यत हुई। 

“बैठ जाओ कुसुम!” सौरभ को अनसुना न कर पाती मगर उसका फ़ोन बज उठा। उस क्षण कदम वहीं ठहर गए। जरूर कजरी होगी। नीली वर्दी की जेब से मोबाइल निकालकर देखा। उसका अनुमान सही था। एक यांत्रिक-सी प्रतिक्रिया के वशीभूत रिजेक्ट का बटन स्वत: दब गया। 

सौरभ की आँखें खुली किताब थीं। कुसुम ही अनपढ़ जान पड़ती थी सहकर्मियों को। अपनी सुस्त पड़ती निष्ठुरता को अधिकारपूर्वक काम पर लगाया कुसुम ने। चलने ही वाली थी कि सौरभ की मेज़ पर रखे अखबार पर नज़र टिक गई। 

‘बलात्कारियों को फाँसी दो!’ मोटे-मोटे काले अक्षरों में मुखपृष्ठ पर हेडलाइन में दर्ज था। 

“बीच चौराहे पर लटका दो हरामियों को” वह क्रोध से उफन पड़ी। “...कुकर्म करके हाथ में मंगलसूत्र और ले आते हैं कि ...” आँखें चिंगारी बरसाने लगीं। कुसुम की जिह्वा पर सहसा गाँठ लग गई जब उसकी नज़र सौरभ पर पड़ी, उसे अपने चारों ओर की स्थिति का भान हुआ। सौरभ सहम गया था। पलभर को उसे लगा कि वह ही बलात्कारी है, समाचार-पत्र में मानो उसे ही फाँसी देने की बात कही गई है। ततैये ही ततैये भर गए कक्ष में।  

ततैयों के डंक से बचती वह बाहर निकलने लगी कि तितलियाँ उसके जख्म सहलाने उसपर आ बैठीं। सौरभ की आँखों से झरते प्रेम से वह कब तक सूखी रहती। अंतर तो भीज ही जाता था। विरक्ति की ओढ़नी में कब तक मुँह छिपा सकती थी। उसने प्रेम फुहार के स्रोत को तौलने का निश्चय किया। आजमाना चाहती थी कि यह दैहिक इच्छाओं की पूर्ति की चाहत मात्र है या जन्म-जन्मांतर का साथ निभाने का संकल्प।  

प्रशिक्षण के दिनों में एक निराश प्रेमी ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी तो चारों ओर तमाशबीन भीड़ में से अकेली कुसुम ही थी जो उसे बचाने के लिए आग में कूद पड़ी। दूधवाले के शरीर से कंबल झपटकर जलते छात्र पर लपेटा और उसे खींचकर केंद्र के बाग तक ले गई। सिंचाई के पाइप से आते पानी से उसकी आग बुझाई। एक लड़की की बहादुरी से सब आश्चर्यचकित थे। उस पागल प्रेमी को प्रथम श्रेणी जलने के निशान थे। वह बच गया था और कुसुम भी। जो स्वयं पावक हो उसका कहाँ अग्नि कुछ बिगाड़ सकती थी।  

एक कजरी थी जो दिन में पच्चीस बार फ़ोन पर कुशल पूछती जैसे आग बिल्डिंग में नहीं, कुसुम के शरीर में लगी हो। फौलाद से बनी कुसुम के अंदर अनवरत लावा बहता था। यही तरल अनल सौरभ के सान्निध्य में पाँख फैलाते मोहक अहसासों को खाक कर जाती। 

दिनभर बलात्कारियों की खबर के अक्षर कान में गूँजते रहे। न्यूज़ चैनलों पर बहस चल रही थी कि लड़कियों को कैसे कपड़े पहनने चाहिए; किसके साथ आना-जाना चाहिए और किस समय घर के बाहर नहीं होना चाहिए। दिन छुपने के बाद घर के अंदर रहना चाहिए जहाँ वह पूरी तरह सुरक्षित है। अग्नि की-सी आँच कुसुम के भीतर तैर गई। घर में सर्वाधिक सुरक्षा की कल्पना कितनी मिथ्या है, यह उससे अधिक कोई नहीं जानता था। 

वह शाम को घंटाघर पहुँची।  सामूहिक बलात्कारियों को फाँसी देने के लिए ज़ोर-ज़ोर से नारेबाज़ी चल रही थी। स्त्री वर्ग पूरे उत्साह से न्याय की माँग कर रहा था। कुछ शोहदे ओछी हरकतों से यहाँ भी बाज़ न आ रहे थे। लड़कियों की उपस्थिति उनके लिए एक अवसर थी जिसका वे मनमाना लाभ उठा रहे थे। लड़कियों से छेड़खानी के लिए कोई सज़ा के प्रावधान की माँग करता न दिखा। लड़कियों के चेहरों पर क्रोध व हिकारत के भाव उभरते और माँग के शब्दों के बीच ही लापता हो जाते।  स्वयं कुसुम को भी कई बार यह करेंट लगा। युवतियों के शरीर से शरीर रगड़ता एक आवारा  कुसुम के हाथ लग गया और उसके अंदर का लावा यकायक बाहर फूट पड़ा। उसने जमकर उसकी धुनाई की। वह माफ़ी माँगता रहा और कुसुम उसे अदरक की भाँति कूटती रही। जहाँ कुछ को यह अतिक्रिया लगी, वहीं युवतियों को आत्मरक्षा का एक नया अध्याय पढ़ने को मिला।
  
कजरी का फ़ोन फिर आया। फ़ोन पर कजरी का नाम देख कुंबज का चेहरा मानसपटल पर तैर गया। कुंबज का पावन प्रेमनाद अनाहद ही रहा, मगर कजरी और कुसुम की मित्रता में कोई कमी नहीं आई। पड़ोस में रहने वाली कजरी का भाई कुंबज बचपन से ही कुसुम का दीवाना था। कुसुम के मुरझाए चेहरे में भी उसे प्रेम ही प्रेम पनपता दिखाई देता। कजरी खुद बार-बार अपने भाई के हृदय के संदेश लाती पर कुसुम उन्हें उपेक्षित ही छोड़ देती। फ़ोन बज-बजकर अनुत्तरित बंद हो गया। शोर में बात न कही जा सकती थी न सुनी। कजरी कुशल-क्षेम ही पूछ रही होगी और कुसुम सकुशल है।

अबकी बार फ़ोन की घंटी से कुसुम के शरीर में झनझनाहट फैल गई। दूसरी ओर कजरी ही थी।  

“कुसुम! अस्पताल ले जाना पड़ेगा मौसाजी को। उनके सीने में तेज़ दर्द है।” हड़बड़ाहट से भरी आवाज़ आई। 

“मरने दे उस पाखंडी को। थोड़ा दर्द का अहसास तो होने दे। जो दर्द मिल रहा है, उस दर्द से तो कम ही होगा जो उसने मुझे दिया है। ...और कितनी बार कहूँ कि मौसा मत कह उस कमीने को।” कुसुम के स्वर में झल्लाहट थी।  

“सुन तो कुसुम! लगता है शिखंडीलाल की तबीयत ज़्यादा खराब है।” कजरी गिड़गिड़ाने लगी।  

“बहुत कड़ी जान है। ऐसी आसानी से ये कमीने मरा भी नहीं करते।” कहकर कुसुम ने फ़ोन काट दिया। 

फ़ोन फिर बज उठा। 

“कुछ तो कर कुसुम!” कजरी के शब्द पाषाण में कोंपल फूटने की आस से भरे थे। फिर कुसुम तो ऐसी पंक थी जिसमें पंकज जन्मते हैं। निर्मम में ममता का संचार हुआ। 

“आज तो नहीं कजरी! ...मैं आज शाम शिमला जा रही हूँ। परसों आ जाऊँगी। फिर देखती हूँ।” दुविधा विचार से निकल शब्दों में भर आई थी।  

“तुम शिमला क्यों चल देती हो जब देखो। वहाँ कौन है तुम्हारा?” 

“बस यूँ ही ..., जब भी तितलियाँ देखने का मन होता है।”  

“तितलियाँ...? शिमला में कौन-सा बटरफ्लाई गार्डन है कुसुम?”

“है एक। ... तुझे नहीं पता।” टाल दिया कुसुम ने। शरारती मुसकान पुष्प-पल्लवित हो खिल गई और एक नन्हीं तितली उस पर आ बैठी। 

“और शिखंडी का ... क्या? फ़ोन कट चुका था और कजरी के शब्द अश्रुत ही रह गए। 

‘अनुमान तो मुझे है कुसुम! पर मैं तब तक नहीं पूछूँगी जब तक तू स्वयं नहीं बताती।’ मन में निशब्द ही कहा। 

कजरी के स्नेह और दुलार से उऋण होना न कुसुम के वश में था, न उसकी सूची में ही। माँ का स्थान सहेली ने ले लिया था। 

चार कमरों के अपने मकान में दो रसोईघर होने से कुसुम की विधवा माँ ने छोटी बहन सरला और बहनोई शिखंडीलाल को पिछला हिस्सा किराए पर दे दिया। बेऔलाद बहन का सहारा बनकर अपने लिए भी एक सहारा तलाश रही थी कलावती। बेल ने कब वृक्ष को सहारा दिया है। सरला को पार्किंसन ने जकड़ लिया। कुछ समय किराया आया फिर शिखंडी पर साथी महिला पत्रकार से छेड़-छाड़ का आरोप लगा और नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। 

कलावती के सिर पर सरला और शिखंडी की ज़िम्मेदारी भी आ पड़ी। भागते-दौड़ते सबके खाने-पीने का प्रबंध कर बच्ची कुसुम को मौसी का ध्यान रखने के निर्देश देकर कारखाने निकल जाती। आग बुझाने के यंत्र बनाने के कारखाने में अकाउंटेंट का काम करती थी। कुसुम मौसी-मौसा को खाना पहुँचाने जाती तो शिखंडी उसे गोद में बिठाकर अजब तरीकों से दुलराता। बच्ची कुसुम को इस स्पर्श से नफ़रत थी। मौसा की हरकतों से घिन्न होती थी। शिखंडी के छूते ही उसके शरीर पर ततैये डंक मारने लगते। 

कुसुम के स्कूल जाने के बाद कलावती काम पर जाती तो घर की चाभी सरला के पास छोड़ जाती। स्कूल से लौट चाभी लेने के लिए किशोरी कुसुम का कलेजा धक-धक करता रहता। चाभी के साथ ही शिखंडी घर में घुसा चला आता। खाना लेने कुसुम के पीछे-पीछे रसोई तक जाता और जबरन उसे बाँहों में भरकर उसके शरीर को रगड़ता। कुसुम कसमसाकर रह जाती। चिल्लाने की कोशिश करती तो शिखंडी कसकर उसका मुँह भींच देता। कितनी ही बार स्कूल से आने के बाद वह बेमतलब कजरी के घर जा बैठती। 

ततैये के डंक से केवल कुसुम ही घायल न थी, कुंबज पर बैठी तितलियाँ भी आहत हो जातीं। जिस पराग की इन तितलियों को तलाश है उससे कुसुम के हाथ रीते हैं। यहाँ इन्हें कुछ न मिलेगा। शाम को माँ के आने का समय होने पर ही घर आती। घर आने पर उसे माँ से डाँट पड़ती कि मौसा-मौसी कब से भूखे बैठे हैं।  

डाँट सुनकर वह मन मसोसकर रह जाती पर एक दिन वह इस डाँट के लिए भी तरस गई। आग बुझाने का सिलेन्डर बनाने के कारखाने में शॉर्ट सर्किट हुआ और फैक्ट्री धूँ-धूँ कर जल उठी। दमकल गाड़ी जब तक पहुँची, सब भस्म हो चुका था। सौइयों कर्मचारी मालिक समेत प्रचंड आग में दाह हो गए थे। दुर्घटना की खबर जंगल की आग-सी फैली। टीवी-रेडियो और अखबार इस हादसे की सूचना से अटे पड़े थे। 

‘दमकल वाहन चालकों के अभाव में फुहाराबाद शहर आग की चपेट में?’ ... आदि शीर्षक  मुखपृष्ठ पर विराजमान थे। वीरान-उजाड़ कुसुम ने उस घड़ी फैसला किया कि वह दमकल चालक का प्रशिक्षण लेगी ताकि अब और कायाएँ जीते-जी अग्नि में स्वाह न हो जाएँ। माँ को यही श्रद्धांजलि दे सकती थी वह।  

सदमे और विपदा से घिरी कुसुम घर में अकेली और शिखंडी को भरपूर अवसर। सरला को काँपते हाथ-पैर वहीं छोड़ उसे कुसुम के पास बने रहने का बहाना मिल गया। कुसुम का अपना ही घर ततैये ही ततैयों से भर जाता। कुछ दिन रिश्तेदार व पड़ोसी घर आते-जाते रहते और कुसुम को ततैये दूर से ताकते-मँडराते मालूम होते। तेरहवीं पर सभी नातेदार शिखंडी को ही कुसुम का ध्यान रखने की हिदायत देकर विदा हो गए। 

उस दिन कुसुम की निढाल काया ततैयों से ढक गई। ततैयों का आकार भी साँपों के समान हो गया उस दिन। लाख कोशिश करने पर भी वह शरीर के अंगों पर रेंगते साँपों से बच न सकी। ‘मौसी ई ई ई ...मौसी इई इई इई’ की आवाजें सरला के कानों के पर्दों पर दस्तक न दे सकीं। वह किसी और दुनिया के भ्रमण पर थी। बीमार सरला को नींद की गोली खिलाकर सुलाने के बाद कानों के पर्दों के साथ आँखों और दिमाग पर भी पर्दे पड़ गए थे।
  
अपनी आस्तीन में सर्प पल रहा हो तो बचाव कैसे हो! कजरी कुसुम के संग बनी रहती, उतनी देर कुसुम की साँस में साँस रहती। शाम ढले कजरी घर जाने लगती तो कुसुम का कलेजा मुँह को आ जाता। कजरी की उपस्थिति में भी निगाहों के डंक उसके शरीर में गढ़े रहते। रातभर कुसुम जहरीले बाणों की शिकार रहती। कुसुम दिन में भी जिंदा लाश दिखाई देने लगी थी।  

कुसुम की अवस्था का कारण माँ का जाना समझते हुए कजरी के साथ ही कुंबज के हृदय में सहानुभूति की गंगा बहने लगी थी। कुसुम के मन में पैठी कुंठा और ग्लानि उसे यह प्रेम स्वीकार न करने देती। उसकी बदहवासी में शायद अग्निशामक प्रशिक्षण का आमंत्रण पत्र भी अनदेखा ही निकल जाता जो वह कजरी के हाथ न लगा होता। 
कजरी ने ही स्नेहपूर्वक कुसुम को नैराश्य और अवसाद से बाहर निकाला और कुफ़री जाने के लिए राज़ी किया। कजरी कुसुम को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने गई। कुसुम की पथराई आँखें छलछला आईं। कजरी के गले लग कुसुम ज़ार-ज़ार रोई। जीवन-विषाद के घिनौने सत्य का पृष्ठ कजरी के सामने खुल गया। सब जानकर कजरी के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। 

कुफ़री में प्रशिक्षण के दौरान कुसुम को आभास हुआ कि वह अकेली नहीं है, एक जीव उसके अंदर पनाह ले चुका है। वह विक्षिप्त-सी हो उठी। अजन्मे जीव से घृणा हो जाती और वह शरीर के नए हिस्से को नोंचकर फेंकने को मचल जाती। 

इस नई स्थिति से अनजान कजरी का फ़ोन जब-जब आता, एक सहारे की, एक अपने की ज़रूरत के अहसास का जीव अंदर पलने लगा जाता। अपने शरीर के बदलाव से मोह जन्मने लगा।

उम्मीदों की कलियाँ चटकीं। कुसुम के जीवन में तितलियों का आगमन हुआ। इस अवस्था में उसके लिए अग्निसेना का प्रशिक्षण जारी रखना संभव न था। अग्निशमन संचार व लिपिक कार्यों की ट्रेनिंग का छ: माह का कैंप शिमला के राष्ट्रीय आपातकालीन प्रबंधन कॉलेज में लगा। कुसुम की अर्जी मंज़ूर हुई और भर्ती उसमें हो गई। 

शिमला अस्पताल में कुसुम ने वरदा को जन्म दिया। तितलियाँ सुनहरे पंख लहराने लगीं। माँ के दु:ख में लिया प्रण और एक माँ के उत्तरदायित्व आपस में टकराने लगे। अपने कलेजे पर पत्थर रख ‘वितान बाल आश्रम’ में वरदा को छोड़ उसने शिमला से डेस्क-लिपिक का कोर्स पूरा किया और वापस कुफ़री से अग्निसेना तथा अग्निवाहन चालक का प्रशिक्षण पूरा किया। फुहाराबाद के फायरफाइटिंग कार्यालय में उसकी हाथोंहाथ नियुक्ति हो गई। 

सरला मौसी का पार्किंसन बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया था कि अब वह चलने-फिरने व बोलने से बिलकुल लाचार हो गई थीं। उनकी दशा पर तरस आता तो शिखंडी पर क्रोध और बढ़ जाता। कुफ़री पर लौटने के बाद से कुसुम अब अबोध-मासूम-गुमसुम न रह गई थी। उसकी शांत आँखों से ज्वाला निकलती थी जो शिखंडी को देखते ही दावानल में बदल जाती थी। शिखंडी को छूकर आने वाले काममद ततैये पटाखे की तरह दहन हो जाते। कुसुम ने सीख लिया था कि ततैये के डंक को लोहे के चाकू पर चूना लगाकर निकाला जाता है। 

काम से आने के बाद कुसुम सरला मौसी की खूब सेवा करती। सरला को नहलाना, स्वच्छ करना, अपने हाथ से खाना और दवाई खिलाना; कुसुम वह सब करती जो शायद कभी केवल अपनी माँ के लिए कर सकती थी। कुसुम के सामने होते हुए भी शिखंडी का इतना साहस न हो पाता कि वह कुसुम को छू ले या उसे छूने की कल्पना भी कर जाए।  

सरला की बीमारी में सुधार होना शुरू हुआ। कुसुम को सरला में माँ दिखने लगी। सरला ने बहकती-बिखरती ध्वनि में बोलना तथा अपनी इच्छाएँ बताना भी शुरू कर दिया था। कुसुम के सख्त चेहरे से बिछुड़ी सौम्यता और मुस्कुराहट चुपके से लौट आईं। तुतलाती भाषा में सरला ने कुसुम से उसके विवाह की योजना के बारे में पूछना चाहा। कुसुम की आँखों की चमक बुझ गई। पचासियों दृश्य व अनसुलझे प्रश्न मस्तिष्क में लहर गए। कुंबज का विवाह हो चुका था। वरदा को कौन अपनाएगा जब वह ही नहीं अपना पाई अभी तक। 

कुसुम में नरमाई की कोंपलें फूटती देख एक दिन फिर शिखंडी पर हवस का भूत सवार हो गया। वह कुसुम के कमरे में बलात् घुस आया पर उसकी आँखों के अंगारों से दहल गया। उसके पैरों में गिरकर प्रेम तृप्ति की भीख माँगने लगा। कुसुम की एक लात पड़ते ही वह दूर जा पड़ा। कुसुम छुईमुई का फूल नहीं, कोबारा लिली के फूल में ढल चुकी थी। शिखंडी का स्वाभिमान फन कुचले साँप की भाँति फुफकारने लगा। जिसका दिन-रात दोहन किया हो, उससे पराजय को वह पचा नहीं पाया। अन्य  कोई उपाय न देख वह कुसुम को धमकाने लगा कि वह उसकी नाजायज़ बेटी वरदा के बारे में सब जानता है अत: कुसुम के लिए यही बेहतर होगा कि वह उसे अपने पति के रूप में स्वीकार करे और चुपचाप इस संबंध को चलने दे। 

शिखंडी का वार खाली नहीं गया था। कुसुम सकते में आ गई। उसकी जबान काठ की हो गई। उसकी दृष्टि अपने पर्स पर पड़ी जिसमें वरदा की तसवीर और उसके जन्म का प्रमाण-पत्र रखा था। कुसुम को हारा हुआ जानकर शिखंडी अपने कपड़े खोलकर लहराते कोबरा-सा कुसुम पर झपटा। कुसुम सन्न थी, परास्त नहीं। कुसुम ने शिमला से खरीदा हुआ लंबा चाकू उठाया और एक ही वार में उसके कामांग को उसके शरीर से अलग कर दिया। जब-जब विगत के वीभत्स क्षण दंश देते, बोबीटाइज़ कर हत्या की जड़ को ही उखाड़ फेंकने का विचार बार-बार उसकी मेधा में कौंधा करता था, सो आज यथार्थ में परिणत हो गया। अपने हृदय के टुकड़े पर काले बादल मँडराते देख आज यह साहस और बल भी आ गया था। अशक्त में अपार शक्ति का संचार कुछ ऐसे ही उद्दीपनों से हुआ करता है। फिर कुसुम तो पूर्व की तुलना में मानसिक और शारीरिक बलिष्ठता को प्राप्त हो गई थी। 

शिखंडी को वहीं बेहोश छोड़कर वह सरला को सब बताने के लिए दौड़ी। अचानक उसका यह तिनके-सा आखिरी सहारा भी सदा के लिए आँख मूँद चुका था। वह भीतर तक हिल गई। पत्ते-सी काँप रही थी वह। सरला की मृत देह के पास बैठी वह सारी रात सिसकती रही। क्या करे क्या न करे, कुछ सूझ न रहा था। सुबह शिखंडी को होश आया। वह दर्द से छटपटा रहा था। इस दर्द को कम करने का उसके पास कोई उपाय नहीं था। सरला की चिता को आग देने तक की ताकत उसमें नहीं थी। यह धर्म भी पड़ोस के कुंबज ने निभाया। 

कुसुम को वरदा की चिंता सताने लगी। कजरी को कुछ जरूरी मीटिंग कहकर कुसुम शिमला चली गई। बालाश्रम में उसकी सकुशलता अपनी आँखों से देख वह अगले दिन लौट आई। कजरी को कुसुम का यूँ अचानक शिमला जाना समझ नहीं आया। लेकिन वितान बालाश्रम की संचालिका समझ चुकी थी कि जिस बच्ची को वह कूड़े में पड़ी मिली बताकर छोड़ गई है, उसके गण-नक्षत्र किस कुंडली की ओर संकेत कर रहे हैं।  

कुसुम का फ़ोन बजा तो चीत्कारी यादों का सिलसिला टूटा। 

“कुसुम! शिखंडी को हार्ट अटैक आया है। कुंबज उन्हें प्रज्ञावती अस्पताल ले गया है।” कुसुम का भरभराया स्वर फूटा। 

“कुंबज को कैसे पता चला?” कुसुम को कुंबज के संज्ञान की चिंता ने अधिक सताया। कुंबज के चित्त में कुसुम का चित्र कहीं विकृत न हो जाए, यह एक और वेदना कुसुम को तोड़ सकती थी। 

“फ़ोन पर हमारी बात सुन ली कुंबज ने।” कजरी सकपका गई।   

“कुंबज को उस दैत्य के अंग-भंग से जुड़ी कहानी सुना देती तो शायद उसकी दया भंग हो जाती।” अंदर ही अंदर वह कुंबज को इस बात का पता न लगने देने के लिए कटिबद्ध थी। 

“मालूम तो है ... खैर छोड़, तू कब जा रही है शिमला?” 

“कुछ ही देर में ...” कुसुम जल्द से जल्द फुहाराबाद से निकल जाना चाहती थी। हृदय को मजबूत रखना आवश्यक था। महादुष्ट पर दया का भाव जाग्रत होने न देना था उसे। 

सरला के जाने के बाद से शिखंडी बुझ गया था कि बोबीटाइज़ होने से, यह जाँचना मुश्किल था। बहुत दिन तक चलने-फिरने में तकलीफ़ स्पष्ट दिखाई देती थी। अब उसकी चाल की त्रिज्या अपने कमरे की परिधि तक सिमट गई थी। कुसुम खाना बनाकर पोटली उसके कमरे के हैंडल पर टाँग आती और वह उसपर अपनी ज़िंदगी बसर कर लेता। भूख से उसकी बेचैनी कभी दरवाज़ा समय से पहले खोल देती तो भी कुसुम उसके जुड़े हुए हाथों को अनदेखा कर देती। कृपा दिखाना संभव था, क्षमा करना नहीं। राक्षसों का दीन-ईमान नहीं होता। वरदा को उससे खतरा बना रहेगा और कुसुम की सामाजिक अस्मिता को भी। अनेक बार विचार किया कि उस प्रमाण-पत्र को नष्ट कर दे, किन्तु यह द्वंद्व भी साथ ही उपजा कि उससे हासिल क्या होगा। अनिर्णय के कारण प्रमाण-पत्र अपने स्थान पर सुरक्षित रहे। 

आज तितलियों के झुंड के झुंड शिमला की ट्रेन में भी मिले कुसुम को। ट्रेन से बाहर भी देखती तो झिलमिलाती तितलियाँ उसके भावों को गुदगुदा जातीं। 

स्टेशन से ‘वितान’ तक के रास्ते में तितलियाँ उसके दिमाग में डेरा डाले रहीं। टैक्सी चालक को पैसे देने के लिए पर्स में हाथ डाला तो वरदा की तसवीर पर पखौटे उग आए। उसके जन्म का प्रमाण-पत्र भी तितली की भाँति फड़फड़ाता मिला। उसने पल भर में सैकड़ों निर्णय ले डाले। 

संचालिका ने वरदा को बिना कानूनी कार्यवाही के गोद देने से इंकार किया तो उसके जन्म का सर्टिफिकेट काम आया। कुछ ज़रूरी कागज भरवाकर उन्होंने वरदा को कुसुम की गोद में डाल दिया। 

शिमला से दिल्ली की ट्रेन 100 से अधिक गुफ़ाओं-कंदराओं से गुजरी मगर आश्चर्य था कि कुसुम को कहीं अंधकार न दिखाई दिया। गुफ़ा से निकलने पर आँखें अवश्य चौंधिया जातीं। प्रकृति के संकेत हृदय तक प्रेषित हो रहे थे फिर भी मस्तिष्क बार-बार हृदय पर हावी हो जाता और वह वरदा की सलामती-रक्षा को लेकर सोच में पड़ जाती। यद्यपि समाज की सोच के डर को उसने अपने अस्तित्व से काटकर दूर फेंक दिया था तथापि नौकरी के बिना गुज़ारा कठिन होगा, यह विचार तो कौंध ही जाता। सारे विचारों को झटके से उखाड़ उसने चलती ट्रेन के बाहर फेंका और वरदा को कसकर गले लगा लिया। अब वही तो उसके जीवन का आधार थी। 

सामने की सीट पर बैठी सवारी के हाथ में पकड़े अखबार पर नज़र पड़ी। ‘बलात्कारियों को फाँसी!’ मुख्यपंक्ति पढ़कर न्याय पर विश्वास पुख्ता हुआ। कुदरत के फैसले कब कोई जान पाया है। 

वरदा से खेलते-बतियाते वह टैक्सी में सवार हो फुहाराबाद रेलवे स्टेशन से घर की ओर बढ़ रही थी। सबसे पहले वरदा को कजरी से मिलवाना चाहती थी। एक कजरी ही तो थी जो हेय विभाव के बिना उसे अपना सकती थी और माँ जैसी ममता कर सकती थी। वरदा किसी प्रौढ़ा सी शांत और कुसुम किसी बच्ची सी चहकती अपनी दुनिया में रंग भर रही थी कि फ़ोन फिर बज उठा। कजरी का फ़ोन होगा, समझकर उसने पर्स में से मोबाइल निकाला किन्तु स्क्रीन पर सौरभ का नाम उभर रहा था। उसने झट से फ़ोन रिसीव किया। 

“कुसुम तुम वापस आ गई हो क्या? इमरजैंसी है...। प्रज्ञावती अस्पताल में भयंकर आग लगी है।” सौरभ की हड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई आ रही थी। 

“अरे! ...वहाँ ...वहाँ तो मेरे..., मैं आती हूँ वापस।” कुसुम का स्वर लड़खड़ाने लगा था। टैक्सी को प्रज्ञावती अस्पताल चलने का आदेश दिया। 

अस्पताल में बहुत से रोगियों को बाहर निकाला जा चुका था। बहुत से अभी बाकी थे। उसने फटाफट दमकल वाहन से निकाल अपना फायर सूट पहना और अंदर जाने ही वाली थी कि उसकी नज़र पूरी तरह जले हुए आई.सी.यू. वार्ड के पेशेंट्स पर पड़ी। एक मृत जली देह के पास वह क्षण भर को ठिठक गई। 

त्राहि-त्राहि मची हुई थी। अस्थिर मन:स्थिति और भयंकर आपदा की परिस्थिति में भी उसने बीसियों लोगों की जान बचाई। जब आग पर काबू कर लिया गया तब उसे वरदा का होश आया। वह टैक्सी को खोजने लगी। वरदा सौरभ अभयंकर की गोदी में सुरक्षित मुस्कुरा रही थी और सौरभ के चश्मे से खेल रही थी। तितलियाँ उसके चारों ओर खिलखिला रहीं थीं। कुसुम ने चारों दिशाओं में दृष्टि घुमाई। ततैये कहीं नहीं थे। उगते सूरज की लालिमा के समान एक मधुर स्मित उसके चेहरे पर फैल गई।

-डॉ. आरती ‘लोकेश’
दुबई, यू.ए.ई. 
ई-मेल: arti.goel@hotmail.com

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