उस्ताद किस्सागो जनाब कृश्न चन्दर साहब की कालजयी रचना “एक गधे की आत्मकथा” में एक इंसान जैसा सोचने वाला गधा कई दिनों तक एक गधी के साथ घास चरने का शगल करता रहा था। जब गधे को हद इम्कान इस बात की तस्दीक हो गई कि गधी भी मुझमें रुचि रखती है और यह गधी तो जीवन संगिनी बनाई जा सकती है। गधे को वह गधी देसी गधियों से इतर लगी तो उसने गधी से इजहारे दिल किया कि “तुम मेरी शरीके हयात बनोगी।"
गधी ने तो नफासत से सिर्फ़ “हिस्स” कहते हुए सलीके से इंकार कर दिया था मगर ये बात गधी की माँ को बेहद नागवार गुजरी कि एक देसी गधा (जो भले ही पंडित नेहरू के बंगले तक हो आया हो और खुद को बुद्धिजीवी गधा समझता हो) और जिसकी परवरिश खालिस देसी गधामय माहौल में हुई हो। वह उनकी एरिस्ट्रोकेट बेटी को सामने से आकर प्रपोज करने की हिमाकत कैसे कर सकता है। भले ही तब सीनियर गधी ने देसी गालियां न दी हों पर उस बुद्धिजीवी गधे को प्रणय निवेदन पर इतना लताड़ा था कि बुद्धिजीवी गधे ने इजहार ए इश्क से तौबा कर ली थी।
इश्क से लतियाया हुआ आदमी आगे सलीके के काम चुन लेता है। सो उस बुद्धिजीवी गधे ने शराबबन्दी के उस दौर में शराब बेचने जैसे उम्दा काम को चुन लिया था।
मगर उस्ताद साहब के जमाने से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और इश्क करने के तौर-तरीके भी काफी बदल चुके हैं। ऐसी बात नहीं है कि अब पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी टाइप के गधे नहीं होते। अब तो इफरात में बुद्धिजीवी गधे विचरते पाये जाते हैं सोशल मीडिया की चारागाह में। ये और बात है कि अब इजहार-ए-इश्क के रास्ते में मम्मियां आम तौर पर आड़े नहीं आतीं।
“वक्त पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है” तथा “दिल आया गधी पर तो परी क्या चीज है" जैसे सांत्वना वाली मिसालें पहले से मौजूद थीं जो इंसान को मौके-बे-मौके खुद को गधा तसलीम करने में मदद फरहाम किया करती हैं। उस्ताद साहब कृश्न चंदर के रचे किस्सों में भी देसी गधा अफसाने के अंजाम तक आते-आते गधा से “डंकी सर” बन ही जाता है।
वैसे ही अब मनुष्यों को भी लताड़ने के लिए गधा नहीं अपितु “वैसाखनन्दन” जैसे नामों की उपमा दी जाती है। एक बात की अक्सर नजीर दी जाती है कि “चोर-चोरी से जाए मगर हेरा-फेरी से न जाये।” उसी तरह मनुष्यों में कितनी भी वीरता का बखान करने वाली शेरों जैसी शेरता, लोमड़ी जैसे दिमाग के लिये लोमड़ता की उपमा दी जाती रही हो। सो इसी तरह गधेपन के लिए वैसाख नंदिता जैसी नजीर देने पर तवज्जो दी जानी चाहिये।
भले ही मैंने तालीमयाफ़्ता और लिखने पढ़ने से राब्ता रखने के बरक्स खुद को बुद्धिजीवी माना हो मगर बचपन से ही मेरे माता-पिता मुझे धड़ल्ले से गधा कहकर पुकारा करते थे। मेरी पत्नी ने न सिर्फ अपनी सास से उसका बेटा और गहने लिए बल्कि उनसे परिवार में दी जाने वाली कुछ उपमाएं भी ले ली थीं।
मेरे लेखक होने का लिहाज करते हुए उसने मेरी माँ के तर्ज पर गधा तो नहीं मगर कभी-कभार वैसाखनन्दन उर्फ बीयन कहना जारी रखा था। वैसे भी मैं वैसाख जैसे महत्वपूर्ण मास में पैदा हुआ था फिर भी मेरी ज़िंदगी में ढेर सारा गधापन भरा हुआ था। बिना ऊपरी कमाई वाले महकमे में दिन भर दफ्तर में गधों की तरह काम करता था और शाम को थक कर चूर हो जाता था। उसके बाद किसी तिरस्कृत पशु की तरह खर्राटे लेकर सोता था। पत्नी और बच्चे मुझसे खार खाये रहते थे कि एक तो मैं एक्स्ट्रा कमाई उन्हें नहीं दे पाता था, दूसरे काम से थक जाता था तो उन्हें मेला, मॉल्स, होटल वगैरह नहीं ले जा पाता था। वो सब मुझसे खफा भी रहते थे। पत्नी तो कायदे से मुझसे खफ़ा और निस्पृह रहा करती थी। उसके हिसाब से उसके जीवन के सारे दुखों का कारण मैं ही हूँ। बिजली जाने से लेकर और सब्जी में नमक ज्यादा हो जाने तक सारे गुनाह मेरे बरक्स थे। मुझ पर कुढ़ते रहने के बावजूद वह मोहल्ले के व्हाट्सएप ग्रुप, फेसबुक आदि में उलझी रहा करती थी। इससे उसके जीवन का ताप एवं संताप नियंत्रित रहा करता था।
दफ़्तर में कमाऊ पटल नहीं तो तवज्जो नहीं और घर मे ऊपरी कमाई नहीं तो तवज्जो नहीं। सो कुछ कुछ खास बचता नहीं था अपनी इज्जत अफजाई करने का साधन। हिंदी का आम लेखक बेचारा दीन-दुनिया से ठुकराया हुआ बंदा होता है। सो अपनी चलाने के लिए उसने फ़ेसबुक की कायदे से पनाह ली।
फ़ेसबुक के अनंत आभासी अंतरिक्ष पर विचरण करते हुए काफी तजबीज के बाद एक कवियत्री मिलीं। कवयित्रियां तो पहले भी बहुत मिली और बिछड़ी थीं मुझसे पर इनकी बात ही अहलदा थी। मैंने उनकी पांच इंच की फोटो के साथ चेंपी गई डेढ़ इंच की कविता की तारीफ कर दी। तुरन्त ही उनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। मैं तो निहाल हो उठा। मैंने फ्रेंड रिक्वेस्ट को प्रेम रिक्वेस्ट मानते हुए स्वीकार किया और बल्लियों उछलते हुए अपने दिल का नजराना लेकर उनके मैसेंजर में पहुंचा और अपनी खुशी को न छिपाते हुए कहा--“आपका शुक्रगुजार हूँ कि आपने फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी। मैं आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने को सोच ही रहा था कि आपने पहले ही फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी। काफी रौशन ख्याल की और माडर्न हैं आप।”
“ऐसी बात नहीं है। मैं अपने फॉलोवर्स को ऐड कर लिया करती हूं” उधर से टका सा जवाब आया।
“सिर मुड़ाते ही ओले” मैं मन मसोस कर रह गया। “हाय-हाय” मेरी आशनाई की इब्तिदा में ही काम तमाम होने के अंजाम नजर आ गए। मैंने अपनी हरकतों पर सर धुना, कोसा और खुद को फटकारते हुए अहद ली कि अब किसी सुंदरी के रूपजाल में नहीं फसूंगा भले ही आभासी दुनिया की ही क्यों न हो। ये और बात थी कि वास्तविक रूप से मिलने वाली किसी सुंदरी तो क्या बदसूरत महिला ने भी मुझे कभी घास नहीं डाली थी।
मेरे जैसा मरियल एवं पिलपिला आदमी रियल में तो किसी सुंदरी को आकर्षित करने में विफल रहा था। वर्चुअल में जरूर किसी को रिझाने का प्रयत्न कर सकता था। मेरे जीवन में तिरिया का साथ ही बदा न होता अगर कुछ पुश्तैनी माल-असबाब का सहारा न होता। शहर में वालिद साहब की तिमंजिला कोठी और गांव की जमीन बेचकर घूस देकर लगवाई गई सरकारी मुलाजमत के बरक्स मेरा विवाह तो हो गया था। गो कि बाल बच्चेदार था पर दिल में कहीं ये अजीम हसरत टीसती रहती थी कि मैं भी किसी को पसन्द करके इजहार ए दिल करूँ।
फिर वो मेरी लाजवंती मेरे इसरार पर शर्माए, मुस्काये और चंद रोज बाद आकर मुझसे कहे-–“मैं आपकी बेहद इंप्रेसिव पर्सनालिटी से बहुत प्रभावित हूँ। आपके लेखन और रौशन ख्याली से मेरे दिल का कमरा कमरा रौशन है। अब तक कहाँ थे आप मेरे सरताज। उम्र के इस मोड़ पर हम मिले हैं रियल में हम इश्क नहीं कर सकते मगर वर्चुअल में प्रेम की पींगे तो बढ़ा ही सकते हैं।” ये सब सोचता तो मेरे मन में गुदगुदी और जिस्म में सनसनी होने लगती थी।
मैं ऐसे ही किसी दिलफ़रेब मौके की तलाश में मुद्दतों से वर्चुअल दुनिया में अपनी किस्मत को आजमा रहा था।
उस कमलनयनी कवियत्री ने भले ही मुझे अपना फालोवर बनाकर फ़ेसबुक पर ऐड किया था मगर अब मैं उसका दोस्त था और दोस्ती का अगला कदम क्या होता है! ये सोच कर ही मन में गुदगुदी होने लगती थी।
उनकी हर फ़ेसबुक हर पोस्ट पर मैं टैग होता था। यदि उनके पोस्ट पर आने पर मुझे कुछ देर हो जाये तो मैसेंजर में मेसेज देती थीं। कभी-कभी उनकी कविताओं पर मैसेंजर पर बात भी होती थी। फिर मैसेंजर काल पर करीब-करीब रोज बात होने लगी। हमारे सम्बंध बेहद प्रगाढ़ होते गए। एक दिन मैंने उस सम्मोहक कवियत्री से उसका व्हाट्सअप नम्बर मांगा। तो उसने मैसेंजर काल पर बताया--“मेरे हसबैंड ने मुझे कसम दी है कि सोशल मीडिया पर किसी से अपना नम्बर शेयर नहीं करूँ। मैं वह कसम तोड़ नहीं सकती। मगर आप भी मेरे बेहद करीबी मित्र अब हो गए हैं इसलिए आप मुझे मैसेंजर पर ही काल कर लिया कीजिये, अब मैसेंजर, व्हाट्सअप में कोई फर्क नहीं रहा। हम इसी पर बात कर लिया करेंगे।”
उस मोहिनी स्त्री का विकल्प मुझे बढ़िया लगा। फिर हम मैसेंजर पर आडियो/वीडियो कॉल भी करने लगे। हम दोनों एक दूसरे को बहुत हद तक जान चुके थे। मुझे लगा यही वक्त है। लोहा गर्म है, हथौड़े से प्रहार करना चाहिये। ऐसे ही एक दिन मैसेंजर पर वीडियो कॉल करते हुए मैंने अपनी हसरत उजागर करते हुए कहा--“आई लव यू।”
उसने पहले हैरानी से फिर गुस्से से मुझे देखा और फिर दांत किटकिटाते हुए बोली-–“अबे बिल्कुल बेवकूफ है क्या तू। मैं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हूँ और तू तीन बच्चों का बाप। नाशपीटे, नाश हो तेरा। ऐसा कहने की तेरी हिम्मत कैसे हुई। गधा कहीं का। यू ब्लडी डंकी हाउ डेयर यू!" ये कहकर उसने मुझे वीडियो कॉल पर सैंडिल दिखाते हुए ब्लाक कर दिया।
मैं फ़ेसबुक डीएक्टिवेट कर, घर के पीछे के मैदान में घूमने आया हूँ। मैदान में बहुत से गधे विचरण करते हुए घास चर रहे हैं। गधा चराने वाले के मोबाइल पर अताउल्लाह खान का गाना बज रहा है--उसमें एक शेर यूँ नश्र हुआ--
“नजरें मिली और प्यार कर गया,
पूछा जो मैंने उससे इंकार कर गया।”
गीत के बोल अच्छे हैं मगर मेरा मन उसमें रम नहीं रहा है। सामने मैदान में घास चर रहे गधों को देख रहा हूँ मगर मेरे जेहन में उस मनमोहिनी कवियत्री की बातें गूँज रही हैं--“यू डंकी, हाउ डेयर यू!”
-दिलीप कुमार