नकली आँखें बीस लगा ले,
अँधा देख न सकता है।
मनों पोथियाँ बगल दबा ले,
मूरख सोच न सकता है ॥
लदे पीठ पर नित्य सरंगी,
गदहा राग न कह सकता।
चाहे जितना पान चबा ले,
भैंसा स्वाद न लह सकता ॥
नहीं चढ़ाकर कोरी कलई,
तांबा बन सकता सोना ।
नहीं मोर के पंखे पाकर,
कौवे का मिटता रोना ॥
नकल व्यर्थ की करता है जो,
सदा अन्त में रोता है।
बिना गुणों के नहीं जगत में,
मान किसी का होता है ॥
- अरुण प्रकाश 'विशारद'
[शिशु, सितंबर 1925, संपादक: सुदर्शनाचार्य, सुदर्शन प्रेस, प्रयाग]