बेच डाला जिस्म और ईमान रोटी के लिए,
क्या से क्या होता गया इंसान रोटी के लिए।
एक ही जैसे हैं सब अपना-पराया कुछ नहीं,
बन गया है आदमी शैतान रोटी के लिए।
जिदगी के वास्ते रोटी जरूरी है मगर,
कर रहा है आदमी विषपान रोटी के लिए।
था बड़ा ख़ुद्दार लेकिन वक़्त कुछ ऐसा पड़ा,
बेच डाला उसने हर सम्मान रोटी के लिए।
भूख से पागल हुआ तो ले रहा है देखिए
आदमी ही आदमी की जान रोटी के लिए।
भूख से तो मर गया ‘पंकज' मगर वह कह गया,
क्यों भला बेचूँ अरे सम्मान रोटी के लिए।
-गिरीश पंकज
[साभार-हरिगंधा, मई 2018 ]