यह कैसा कोलाहल, कैसा कुहराम मचा ! है शोर डालता कौन आज सीमाओं पर ? यह कौन हठी जो आज उठाना चाह रहा हिम मंडित प्रहरी अपनी क्षुद्र भुजाओं पर ?
मैं - भारत माँ - अपने आँगन में बैठ, सुनाती हूँ लोरी, निज नन्ही-मुन्नी फसलों को सहलाती हूँ, जीवन के मीठे मादक गीत सुनाती हूँ, पतझड़ में भी मधुऋतु लाने को आतुर हूँ, रेतीले टीलों पर मधुमास बुलाती हूँ, भाखड़ा बनाती हूँ, नंगल, चम्बल के साज सजाती हूँ, अपनी अमराई में कोयल बन गाती हूँ। मेरे हर भौंरे की साँसों में गूँजन है हर कली गन्ध से युक्त और मदमाती है। फाख्ता अमन की उड़ती है मेरे नभ में।
यह किसका खूनी पंजा बढ़ता आता है। यह कौन हठी, जो बार-बार मेरे दरवाजे से आकर टकराता है? यदि चाह तुम्हें है जीवन की बगिया फूले, अपनी सीमाओं में रहकर जीना सीखो, कोलाहल से आतंकित हमें करो मत तुम, उल्लास भरा ममता का मधु पीना सीखो ! मेरे आँगन से सदा प्यार पाया तुम ने उसके बदले में अंगारे बरसाते हो ! विषधर, फन फैलाकर आतंकित करते हो मेरी करूणा का तुम यह मूल्य चुकाते हो ? बाहर भी कोलाहल, घर के भीतर भी फैला कोलाहल यह कौन जगा ? अँधियारे में किसका कर अपना खड्ग उठाने को आतुर है ?
"मैं हूँ अशोक।" "तू जाग गया है प्रियदर्शी?" "हाँ माँ, मुझ को नींद नहीं आती है मैंने करवट ली है, क्या तुझ पर कोई आफत आई है? जो तेरे दरवाजे पर चिंघाड़ रहे हैं उन से कह दे- मैंने कलिंग के महायुद्ध के बाद प्रतिज्ञा की थी- शस्त्र नहीं धारूँगा। पर इसका यह अर्थ नहीं कोई आक्रान्ता मेरा-तेरा वक्षस्थल रौंद चला जाएगा औ' मैं शान्त रहुँगा ! कह दे माँ, कह दे उनसे -मेरा प्रियदर्शी जाग गया है फिर कलिंग की याद धरा को दिलवा देगा।" सो जा बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है, मेरे इस युग का प्रिय प्रहरी जागरूक है,
यह क्या ? केसर की क्यारी में किसकी आँखें धधक रही है अंगारों-सी ? कौन जगा ? "मैं हूँ कनिष्क।" तू जाग गया है देवपुत्र ? "हाँ माँ, मुझको नींद नहीं आती है, कैसा कोलाहल है ? क्या तुम पर कोई आफत आई है ? उनसे कह दे - उनके घर में, धर्म-ज्ञान की गंगा स्वयं बहाई थी- मैंने ही जाकर ! उनकी झीलों में मेरे घोड़ो ने जल-पान किया था। अब भी मेरे एक हाथ में धर्म-ग्रन्थ है, एक हाथ में प्रबल खंग है उनकी जो इच्छा हो आकर चुनना चाहें, चुन लें।" सो जा देवपुत्र ! सो जा सुत ! ऐसी कोई बात नहीं है, मेरे इस युग का प्रिय प्रहरी जागरूक है, बाहर भी कोलाहल, घर के भीतर भी फैला कोलाहल मैं तो पागल आज हुई जाती हूँ। यह सब क्या है ?
यह क्या ! युगों-युगों से बजती मेरे कान्हा की वंशी के मृदु स्वर, मूक हो गए ! कान्हा-कान्हा! क्या है ? तेरी वंशी के मादक स्वर कैसे मूक हो गए? "पता नहीं माँ, क्यों मेरी अँगुलियाँ वंशी के रंघ्रो पर चलने से करती इन्कार और तर्जनी खुद ही इनसे अलग हुई जाती है! शायद चक्र उठाने को आतुर है, क्या तुझ पर कोई आफत आई है ? एक बात मैं तुझ से भी कह दूँ, मां, इस रण में मै युद्ध करूँगा। मुझ-जैसा धनुषधारी, चक्रसुदर्शनधारी अर्जुन के घोड़ो की खींचेगा लगाम- यह कब सम्भव है ! गीता का उपदेश न मुझको देना होगा गीता तो अब भारत की रग-रग में रची हुई है, इस रण में मैं युद्ध करूँगा- प्रलय स्वयं अवतरित धरा पर हो जाएगी।" सो जा कान्हा, सो जा नटवर ! सो जा मेरे रास-रचैया, सो जा मेरे माखनचोर कन्हैया सो जा। तेरे पग तो नर्तन करते ही अच्छे लगते हैं। "नृत्य करूँगा ! मुझे शपथ तेरे चरणों की, नृत्य करूँगा- आज कालिया के हर फण पर नृत्य करूँगा। उस से कह दे, निज सहस्त्र फण ताने अपने, मेरा केशव अब तेरे हर फण पर नृत्य करेगा।" वंशी के मृदु रव से मादकता भर दे जन-जीवन में तू मेरे मोहन, भारत रण की इच्छा से उद्वेलित मत हो ।
यह क्या रे, गांडीवी ! तू भी जाग गया है। "हाँ माँ, मैंने विराट की गौओं की खातिर बृहन्नलापन तजकर धनु धारा था। जब तेरी सीमा पर होंगे अपहरण कि तेरी ललनाओं की लाज लुटेगी, कह माँ, कह, तू ही कह- कैसे फिर यह- तेरा अर्जुन, बृहन्नला बन करके बैठा रह जाएगा। उन से कह दे- गांडीवी का गांडीव मचलने लगा है फिर अग्निशिरा धरती पर गिरने वाला है !"
बाहर भी कोलाहल, घर के भीतर भी कोलाहल मैं तो पागल आज हुई जाती हूँ। यह सब क्या है ? इधर मगध के खंडहरों में यह कृशकायी, आँखों में शिव शक्ति संजोये पैर पटककर उन्मादी-सा घूम रहा है। कौन जगा है, बाल नोचता है क्यों अपने ?
" मैं हूँ माँ, चाणक्य !" विष्णुगुप्त कौटिल्य! हठी, तू जाग गया है ! "पता नहीं माँ, मेरा कर क्यों बार-बार फिर मेरी शिखा खोलने को अकुला उठता है ! क्या तुझ पर कोई आफत आई है ? चन्द्रगुप्त भी करवट बदल रहा है, क्या कोई सैल्यूकस फिर बनकर आक्रान्ता अपनी बेटी का डोला लेकर तेरे दरवाजे पर आया है ? उस से कह दे, तब तो केवल चार प्रान्त लेकर दहेज में छोड़ दिया था,
अब की बार शिखा मेरी यह तभी बँधेगी जब ‘आक्रान्ता' शब्द धरा से मिट जाएगा। सो जा मेरे लाल हठीले, मुट्टीभर हड्डी के ढांचे सो जा। मेरे इस युग का प्रिय प्रहरी जागरूक है। सारा देश विचित्र भावना में उलझा है ? हिम गिरि अँगारे बनने को आतुर रेतीले टीले बन रहे बवंडर, मैदानों में जाग रहे धनुधारी सागर की लहरों में भी आया उफान है, मैं - भारत माँ - आकुल आज हुई जाती हूँ। यह सब क्या है ? बाहर भी कोलाहल, घर के भीतर भी कोलाहल दक्षिण, उत्तर, पूरब, पश्चिम तक फैला कोलाहल ! दक्षिण की फुलावारी मेरी महक रही है उसमें से उठती है रह-रह कर किसकी हुँकार ?
कौन जगा है ? "माँ ! मैं हूँ पुलकेशन ! स्वयं हाथ मेरा - प्रत्यंचा तान रहा है, ऐसा क्यों है ? क्या तुम पर कोई आफत आई है ? तेरी आज्ञा मान, अतिथि का सदा किया सम्मान अपने आँगन में उसके हित रास रचाए दिया नेह का दान । चाहे तेरा पुत्र हर्ष हो, या पुलकेशन तेरी परम्परा की रक्षा सदा सर्वदा हमने की है। उसी अतिथि के वंशज, शान्ति-पाठ को भूल बनें आक्रान्ता, रौब जमाएँ तेरी नई नवेली फसलों को धमकाएँ- तू ही बतला, सोच स्वयं माँ, मेरे और हर्ष के रहते कब सम्भव है ! कोई ऐसी दुर्घटना ब्रह्मपुत्र, गंगा, गोदावरी और गोमती के रहते, घट जाए - हम सब सोएँ, आक्रान्ता तुझ को धमकाए ! समझा दे माँ उनको - मेरी सिंह-गर्जना सुन चट्टाने बनती पानी मेरे तेवर देख शान्त सागर बनते तुफानी !" सो जा रे चालुक्य हठीले, सो जा ! तेरे तेवर देख मुझे भी भय लगता है।
यह क्या ? दिल्ली से फतेहपुर सीकरी के मार्ग पर किस के घोड़ो की टाप सुनाई देती है ? गौर वर्ण उन्नत ललाट, तू कौन जगा ? "हम हैं अकबर !" अकबर महान, तू जाग गया मेरे बच्चे ! "हाँ माँ हमको नींद नहीं आती है पता नहीं क्यों अपने माथे पर खुद ही बल पड़ते जाते हैं,\ आँखों में पड़ते है डोरे लाल। भृकुटि स्वयं तनती जाती है! क्या तुझ पर कोई आफत आई है ? उन से कह दे- अकबर और प्रताप एक हैं अब उनमें आपस में युद्ध नहीं हो सकता। चेतक पर चढ़कर अकबर आएगा- हिमगिरी की छाती पिघलेगी चेतक की टापों से- तब क्या होगा ? बर्फ बनेगी अंगारे, तब क्या होगा ?" सो जा बेटा, सो जा, ऐसी कोई बात नहीं है। मेरे इस युग का प्रिय प्रहरी जागरूक है। बाहर भी कोलाहल, घर के भीतर भी कोलाहल- ओ चेणम्मा, अरी जवाहर बाई, अरी चाँद सुलताना, ओ झाँसी की लक्ष्मी ! सावन के मनभावन गीत सुनाओ, रोक दिए क्यों ? निज झूले अम्बर की ओर बढ़ाओं रोक दिए क्यों ? आज तांतिया के स्वर में अपना स्वर नहीं मिलाओ, तुम मीरा की थिरकान पर संगीत जगाओ, अभी चूड़ियों के सरगम पर पाँव उठाओ। मत चूड़ियाँ उतारो, मत तलवार सम्हालो, होगी अगर जरूरत तुम्हें जगा दूँगी मैं। सावन की उन्मत धार के संग इतराओ !
ओ अभिमन्यु ! अरे लव-कुश बादल औ' फत्ता ! अभी खेलने के दिन हैं, कहकहे लगाओ, अपनी मादक हँसी बखेरो- उपवन के विहंग बन गाओ। जाओ फूलों के संग खेलो ! विद्यापति, मत कीर्ति पताका, कीर्तिलता के छन्द जगाओ ! मेरे कविकुल गौरव भूषण, चन्द सो रहे हैं- मत उन्हें जगाओ ! अपनी मादक मस्त पदावलि के मृदु स्वर लहराओ ! सोया हुआ कबीर जगाओ ! नानक तुलसी, सूर जगाओ ! या फिर चुप हो जाओ। अरावली की घाटी पर यह कौन रगड़ता खड्ग किसका खड्ग बार-बार इन चट्टानों से टकराता है ? अरे अभागे, तू अन्धा है तुझ को दीख नहीं पाता है। बता कौन तू ? "मैं हूँ रायपिथौरा।" पृथ्वीराज चौहान, पुत्र, तू जाग गया है ? "हाँ माँ, बाहर वालों से तो ये तेरा अशोक है ये कनिष्क है, स्वयं कृष्ण जागे हैं अकबर जाग गया है, स्वयं निपट लेंगे, मां, मैं तो तेरे जयचन्दों का सिर काटूँगा जिनके कारण मुझे पराजय पड़ी देखनी। फिर देखूँगा - कौन प्रबल आक्रान्ता आकर, इस धरती पर करता है उत्पात! पगली मां, भोली मां, शायद भूल गई है अन्धा हूँ तो क्या है- प्रबल शब्द - बेधी हूँ। आज शब्द - बेधी का हर शर, स्वर पर जाकर प्रबल लक्ष्य का संधान करेगा। प्रलय स्वयं अवतरित धरा पर हो जाएगी, तब क्या होगा ?" सो जाओ, तुम सब सो जाओ, ऐसी कोई बात नहीं है। मेरे युग का प्रिय प्रहरी पूरा जागरूक है। फिर तुम मुझ से दूर नहीं हो, मुझे जरूरत होगी, तुम्हें जगा लूँगी मैं निज विकास की मादक लोरी के स्वर मुझको लहराने दो।
-देवराज दिनेश |