वह इस युग का वीर शिवा था, आज़ादी का मतवाला था।
जन-मन पर शासन था उसका, दृढ़ तन कोमल मन था उसका।
शासन की मुट्ठी से निकला, और कभी फिर हाथ ना आया।
शासन के सब यत्न विफ़ल कर, साफ़ गया वह वीर निकल कर।
वह अफ़गानिस्तान गया था, जर्मनी औ' जापान गया था।
एकाकी था, सेना लाया, और विजेता बनकर आया।
काँप उठी थी गोरा-शाही, नाच उठी चहुँ ओर तबाही।
वह सचमुच का ही नेता था, रक्त ले आज़ादी देता था।
प्रतिपल ख़तरों ही में रहना, उसके साहस का क्या कहना।
आशा को थी आशा उस से, और निराश निराशा उस से।
इम्फल तक वह आ पहुँचा था, लक्ष्य को सम्मुख देख रहा था।
हा! लकिन दुर्भाग्य हमारा, छिपा उदय होते ही तारा।
रण का पाँसा पलट गया था, बिगड़ गया जो काम बना था।
अभी हमें संकट सहना था, पर-अधीन अभी रहना था।
वाहन लेकर वायुयान का, और छोड़ कर मोह प्राण का।
चला गया वह समर-भूमि से, निज भारत की अमर भूमि से।
कौन कहे फिर कहाँ गया वह, हुआ वहीं का जहाँ गया वह।
-डॉ. राणा प्रताप सिंह गन्नौरी 'राणा'
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