डॉ रामदरश मिश्र

डॉ रामदरश मिश्र का जीवन परिचय
(Biography of Dr Ramdarash Mishra in Hindi)
डॉ रामदरश मिश्र हिंदी साहित्य अमिट नक्षत्र हैं, जिनकी चमक सात दशकों से अधिक समय तक फैली रही। कविता, उपन्यास, कहानी, निबंध, आलोचना और आत्मकथा जैसी सभी विधाओं में अपनी बहुआयामी प्रतिभा का परिचय देने वाले इस रचनाकार ने प्रगतिशील चेतना को अपनाते हुए जीवन की गहराइयों को शब्दों में उतारा। गोरखपुर के एक साधारण गाँव से निकलकर दिल्ली के साहित्यिक पटल पर पहुँचने वाली उनकी यात्रा संघर्ष, सृजन और संवेदना की जीवंत गाथा है।
| पूरा नाम (Name) | डॉ. रामदरश मिश्र (Dr. Ramdarash Mishra) |
| जन्म (Born) | 15 अगस्त 1924 (डुमरी, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश) |
| निधन (Died) | 31 अक्टूबर 2025 |
| विद्या (Genre) | कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण (Poetry, Novel, Memoirs) |
| प्रमुख रचना (Notable Work) | पानी के प्राचीर (Paani Ke Prachir) |
| प्रमुख सम्मान (Awards) | सरस्वती सम्मान, साहित्य अकादमी, भारत भारती, पद्मश्री |
जन्म और प्रारंभिक संघर्षपूर्ण जीवन
15 अगस्त 1924 को, श्रावण पूर्णिमा के पावन दिन, गोरखपुर जिले के डुमरी गाँव में रामदरश मिश्र का जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ। उनके पिता रामचंद्र मिश्र खेतों की मिट्टी से जुड़े थे, जबकि माता कंवलपाती मिश्र घर की मजबूत धुरी। तीन भाइयों—राम अवध मिश्र, रामनवल मिश्र और स्वयं रामदरश—में सबसे छोटे होने के बावजूद, साथ ही एक छोटी बहन कमला के स्नेह में उनका बचपन बीता। आर्थिक तंगी और ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों ने उनके मन में आंचलिकता की गहरी जड़ें जमा दीं, जो बाद में उनकी रचनाओं का मूल स्वर बनी।
शिक्षा: ग्रामीण पृष्ठभूमि से विश्वविद्यालय तक
शिक्षा का सफर भी चुनौतियों से भरा था। प्रारंभिक पढ़ाई डुमरी के प्राइमरी-मिडिल स्कूल में हुई, जहाँ हिंदी और उर्दू के साथ मिडिल पास किया। 'विशेष योग्यता' की कक्षाओं के लिए दस मील दूर ढरसी गाँव का सफर तय किया, जहाँ पंडित रामगोपाल शुक्ल के मार्गदर्शन में ज्ञान अर्जित किया। बरहज से विशारद और साहित्य रत्न की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1947 में अंग्रेजी शिक्षा के लिए वाराणसी पहुँचे, जहाँ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) से इंटरमीडिएट, बी.ए., एम.ए. पूरा किया और पीएच.डी. का शोधकार्य भी संपन्न हुआ। यह शिक्षा यात्रा न केवल बौद्धिक विकास का माध्यम बनी, बल्कि साहित्यिक संवेदना को पोषित करने वाली मिट्टी भी।
साहित्यिक यात्रा: बहुआयामी सृजन
साहित्यिक सफर 1940 के दशक में शुरू हुआ। पहली कविता 'चाँद' जनवरी 1941 में 'सरयू पारीण' पत्रिका में छपी। 1942 में 'चक्रव्यूह' नामक खंडकाव्य लिखा। नई कविता आंदोलन के प्रमुख स्तंभ के रूप में 'विचार कविता' और 'लंबी कविता' के माध्यम से सामाजिक मुद्दों को उभारा, जबकि ग़ज़ल को नई गरिमा प्रदान की। लगभग डेढ़ दर्जन काव्य-संग्रहों में 'पथ के गीत' (1951, प्रथम संग्रह), 'कंधे पर सूरज', 'दिन एक नदी बन गया', 'आग कुछ नहीं बोलती' और ग़ज़ल संग्रह 'हँसी ओठ पर आँखें नम हैं' प्रमुख हैं।
उपन्यास विधा में आंचलिकता, दलित चेतना, स्त्री-चरित्रों और सामाजिक विसंगतियों पर गहन चिंतन दिखा। 'पानी के प्राचीर' (1961, प्रथम उपन्यास) से प्रारंभ होकर 'जल टूटता हुआ', 'सूखता हुआ तालाब', 'अपने लोग', 'रात का सफर', 'आदिम राग' और 'बीस बरस' जैसे 15 उपन्यासों ने हिंदी गद्य को नई दिशा दी। कहानी संग्रहों की सूची लंबी है—'खाली घर', 'एक वह', 'सर्पदंश', 'इकसठ कहानियाँ' आदि, जो ग्रामीण जीवन की कठोर सच्चाइयों को उकेरते हैं।
ललित निबंधों में 'कितने बजे हैं', 'छोटे छोटे सुख' जैसी रचनाएँ दैनिक जीवन की बारीकियों को छूती हैं। पाँच खंडों वाली आत्मकथा 'सहचर है समय' ('जहाँ मैं खड़ा हूँ', 'रोशनी की पगडंडियाँ' आदि) उनके जीवन का आईना हैं। यात्रा-वृत्तांत 'घर से घर तक', डायरी संग्रह 'आते जाते दिन' और आलोचना ग्रंथ जैसे 'हिंदी उपन्यास एक अंतर्यात्रा', 'हिंदी कविता आधुनिक आयाम' तथा 'हिंदी आलोचना का इतिहास' ने उन्हें समीक्षक के रूप में स्थापित किया। संस्मरणों में 'स्मृतियों के छंद' और साक्षात्कार संग्रह 'अंतरंग' उनकी स्मृति-शक्ति का प्रमाण हैं। कुल 14 खंडों वाली 'रचनावली' और अनगिनत संकलनों ने साहित्य को समृद्ध किया। उनकी रचनाओं का अनुवाद अंग्रेजी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में हुआ, और 300 से अधिक शोध-प्रबंध उनके कार्यों पर आधारित हैं।
शैक्षणिक और सामाजिक योगदान
शिक्षण-क्षेत्र में उनका योगदान अविस्मरणीय है। 1956 से गुजरात के एम.एस. विश्वविद्यालय, बड़ौदा; सेंट जेवियर्स कॉलेज, अहमदाबाद और एस.बी. जॉर्ज कॉलेज, नवसारी में अध्यापन किया। 1964 में दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े और 1990 में प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद लेखन पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। वे भारतीय लेखक संगठन के अध्यक्ष (1984-1990), गुजरात हिंदी प्राध्यापक परिषद् के अध्यक्ष (1960-64), साहित्य अकादमी की संगोष्ठियों के अध्यक्ष तथा कई पत्रिकाओं के सलाहकार संपादक रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कॉलेज की प्रबंध समिति के अध्यक्ष (1999-2000) और विभिन्न मंत्रालयों में हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में उनकी भूमिका सराहनीय रही।
सम्मान और पुरस्कार
साहित्यिक जगत ने उन्हें अनेक सम्मानों से नवाजा। 2021 में 'मैं तो यहाँ हूँ' के लिए सरस्वती सम्मान, 2015 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2011 में व्यास सम्मान, 2005 में भारत भारती सम्मान, 2001 में शलाका सम्मान, 2015 में विश्व हिंदी सम्मान, 2017 में शान-ए-हिंदी, 2004 में महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान, 1998 में दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान आदि प्रमुख हैं। ये पुरस्कार उनकी रचनात्मकता और हिंदी साहित्य की विविधता को मजबूत करने वाले योगदान का प्रमाण हैं।
पारिवारिक जीवन
5 जुलाई 1948 को सरस्वती मिश्र से विवाह हुआ, जिनके साथ 75 वर्षों की साझेदारी 3 दिसंबर 2023 को समाप्त हुई। पुत्रों में स्व. हेमंत मिश्र (अभिनेता), शशांक मिश्र (सेवा में समर्पित) और विवेक मिश्र (अभिनेता); पुत्रियों में डॉ. अंजलि तिवारी (शिक्षाविद्) और प्रो. स्मिता मिश्र (प्रोफेसर) हैं। परिवार ने उनके सृजन को हमेशा प्रेरित किया।
निधन
रामदरश मिश्र का जीवन एक ऐसी नदी की तरह था, जो गाँव की मिट्टी से निकलकर साहित्य के विशाल सागर में विलीन हो गई। 31 अक्टूबर 2025 को उनका निधन हिंदी साहित्य के एक युग का अंत माना जा रहा है। उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों को प्रेरित करती रहेंगी, क्योंकि वे न केवल शब्दों की, बल्कि जीवन की अनंत गहराइयों की साक्षी हैं।