जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 
दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को राजपुर नवादा गांव (बिजनौर, उत्तर प्रदेश) में  हुआ था।

दुष्यंत को हिंदी ग़ज़ल का सशक्त हस्ताक्षर माना जाता है।

आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम. तक शिक्षा ली व तत्पश्चात कुछ दिन आकाशवाणी भोपाल में सह-निर्माता रहे।

इलाहाबाद में रहते हुए आपकी हिंदी लेखक कमलेश्वर और मार्कण्डेय से घनिष्ट मित्रता हो गई।  दुष्यंत बहुत सहज और मनमस्त प्रकृति के व्यक्ति थे।  दुष्यंत का पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। 

प्रकाशित कृतियाँ

कविता संग्रह- सूर्य का स्वागत, आवाज़ों के घेरे,जलते हुए वन का वसंत।
ग़ज़ल संग्रह- साए में धूप।
काव्य-नाटिका- एक कंठ विषपायी

निधन: 30 दिसंबर 1975

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पथ की बाधाओं के आगे | गीत

पथ की बाधाओं के आगे घुटने टेक दिए
अभी तो आधा पथ चले!
तुम्हें नाव से कहीं अधिक था बाहों पर विश्वास,
क्यों जल के बुलबुले देखकर गति हो गई उदास,
ज्वार मिलेंगे बड़े भंयकर कुछ आगे चलकर--
अभी तो तट के तले तले!
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दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें - इस पृष्ठ पर दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें संकलित की गई हैं। हमारा प्रयास है कि दुष्यंत कुमार की सभी उपलब्ध ग़ज़लें यहाँ सम्मिलित हों।

 

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एक आशीर्वाद | कविता

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
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काश! मैं भगवान होता

काश! मैं भगवान होता
तब न पैसे के लिए यों
हाथ फैलाता भिखारी
तब न लेकर कोर मुख से
श्वान के खाता भिखारी
तब न यों परिवीत चिथड़ों में
शिशिर से कंपकंपाता
तब न मानव दीनता औ'
याचना पर थूक जाता
तब न धन के गर्व में यों
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आघात

चौधरी भगवत सहाय उस इलाके के सबसे बड़े रईसों में समझे जाते थे। समीप के गाँवों में वे बड़ी आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। अपने असामियों से वे बड़ी प्रसन्नतापूर्वक बातें करते थे। ये बड़े योग्य पुरुष। यही कारण था कि थाने में तथा कचहरियों में भी वे सम्मान के पात्र समझे जाते थे। उनके पहनावे में तथा लखनऊ के नवाबों की वेशभूषा में कोई विशेष अंतर न था । वही दुकलिया टोपी, पाँवों में चुस्त पायजामा तथा एक ढीली-ढाली अचकन से वह नवाब वाजिद अली शाह के कुटुंबी प्रतीत होते थे। किंतु थे पूर्णतया आधुनिक रोशनी के मनुष्य मित्र मंडली में बैठकर मंदिरापान से भी कुछ निषेध न था। सिनेमा के तो पूर्ण रसिक थे। सुना कि मुरादाबाद में अमुक चित्र चल रहा है, तनिक प्रशंसा सुनी उस चित्र की कि चल दिए बाल-बच्चों को लेकर पत्नी तो उनकी साक्षात् लक्ष्मी ही थी। घर में सुख-शांति का साम्राज्य था। लक्ष्मी तो उनके यहाँ जैसे घुटने तोड़कर ही आ बैठी थी। दो-चार भैंस तथा गाएँ भी दूध देती ही थीं। किसी वस्तु का अभाव न था। केवल कभी-कभी उन्हें यह चिंता सताया करती थी कि मरे वक़्त इस संपत्ति का क्या होगा?

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