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Total Number Of Record :4सरोज रानियाँ
क्लास में घुस ही रही थी कि मिसेज़ चैडवेल की आवाज़ से मेरे चाबी ढूँढते हाथ अनजाने ही सहम गए।
"दैट्स हाऊ वी टीच! इफ़ यू डोंट लाईक, यू मे गो टू अदर क्लास!"
एक सन्नाटा छा गया। मैं अब तक हाथ में चाबी भींचें थीं। फिर किसी के चलने की आवाज आई, मैंने चाबी जेब से बाहर निकालकर 'की-होल' में डाल दी। वह आवाज़ भी पास आ गई तो मैंने मुड़कर देखा। एक पचपन-साठ के लगभग, साधारण कद-काठीवाली औरत लंबा जैकेट पहने मेरे एकदम पास से निकल गई। उसी के पीछे-पीछे सिर झुकाए सलवार कमीज पहने एक नवयौवना चली गई।
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कैंप गीत
इक नया भारत यहाँ बसाएंगे
नये इस बगीचे को प्यार से सजाएंगे
चुन-चुन के फूल लाएँ
महके चमन हमारा
आओ यहाँ बनाएँ
हिंदोस्तां न्यारा
इक नया भारत यहाँ बसाएंगे
नये इस बगीचे को प्यार से सजाएंगे
भाषाएँ कितनी भी हों
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वेबिनार | लघुकथा
कोरोना महामारी ने सारी जीवन-शैली ही बदल डाली। विद्याजी को ऊपर से निर्देश मिला है कक्षाएँ ऑनलाइन करवाई जाएँ। चार महीने के लॉकडाउन के बाद कॉलेज खुले और ऊपर से यह आदेश। दो साल बचे हैं उनकी सेवा-निवृत्ति के लेकिन अब ऑनलाईन कक्षाओं और कार्यक्रमों के आयोजन की बात सुनकर उन्हें पसीने छूट गये। जिंदगी भर कक्षा में आमने–सामने पढ़ाया, अब अंत में यह क्या आफत आ खड़ी हुई? अपने विभाग में हर वर्ष वे अनेक कार्यक्रम आयोजित करवाती थीं लेकिन इस वर्ष हिंदी दिवस पर ऑनलाईन कार्यक्रम के फरमान ने उनकी नींद हराम कर दी थी। उनसे तो माउस तक नहीं पकड़ा जाता और यह 'कर्सर’ खुद चूहे की तरह कूद- कूद कर भाग जाता है। भला हो उनके पड़ोसी शर्माजी और उनकी इंजीनियर बेटी प्रीता का। वह लॉकडॉउन के कारण ‘वर्क फ्रॉम होम’ कर रही थी। उसने विद्या जी को काफी बार समझाया लेकिन जब विद्या जी ने हाथ खड़े कर दिये तो उसने विद्याजी के निर्देशानुसार कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार की और तुरंत गूगल मीट पर सभी लोगों को सूचना भेज दी।
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आधी रात का चिंतन | ललित निबंध
‘सर’ के यहाँ घुसते ही लगा कि शायद घर पर कुछ भूल आई हूँ। लेकिन समझ में नहीं आया। अरे, आप सोच रहे होंगे , ये ‘सर’ कौन हैं? तो बताऊँ कि ‘सर’ हैं डॉ. केशव प्रथमवीर, भूतपूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग पुणे विद्यापीठ। कब गुरु से पितृ-तुल्य हो गये, पता ही नही चला। ...और भारत–यात्रा पर बेटी पिता से न मिले वह तो संभव ही नहीं है। सो पुणे पँहुचते ही रात सर के पास रुकने की तैयारी से चल दी। दिमाग में घूम रही थी उनकी वह दीवार जिसपर पुस्तकें ही पुस्तकें सजी हैं। मेरे सोने की व्यवस्था कर के सर बात्रा ‘सर’ के पास सोने चले गये।
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