भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु का 78वें स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश
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78वें स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति का संदेश
'अंतहीन' जीवन जीने की कला
डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के कहानी संग्रह अंतहीन को 12 अविस्मरणीय कहानियों का दस्तावेज़ कहना ठीक है, इससे भी अधिक यदि यह कहा जाए कि यह कहानी संग्रह सांस्कृतिक-बोध और मानवीय-रिश्तों की अद्भुत गाथा है, तो अधिक सटीक होगा। कहानीकार का कवि मन कहानी के साथ-साथ भाषाई-सौंदर्यबोध, उत्तराखंड के सुरम्य प्राकृतिक सुषमा को चित्रित करता चला जाता है। यही कारण है कि वाह! जिंदगी कहानी संग्रह पर चर्चा होने के तुरंत बाद बेचैन कंडियाल जी के द्वारा उपलब्ध कराई गई। इस कहानी संग्रह पर छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरा पर डॉ. विनय पाठक और श्री बी. एल. गौड़ जैसे संतों के समक्ष साहित्य की मंदाकिनी की कल-कल ध्वनि की गूँज न केवल छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों में गूँजी अपितु इसका नाद सौंदर्य भारत की सीमा को बेधता हुआ, विदेशी विश्वविद्यालयों को भी आनंदित कर गया।
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हिन्दी का पुराना और नया साहित्य
मानव-जीवन का समस्याओं के साथ-ही-साथ साहित्य चलता है। जीवन में जिस काल के अंतर्गत जो-जो भावनाएँ रही हैं उन-उन कालों में उन्हीं भाव- नाओं से ओत-प्रोत साहित्य का भी सूजन हुआ है। प्रारम्भ में मानव की कम आवश्यकताएं थीं, कम समस्याएं थीं। इसीलिए साहित्यिक विस्तार का क्षेत्र भी सूक्ष्म था। वीरगाथाकाल में वीर-गाथाएँ लिखी गई, भक्ति-काल में साहित्य का क्षेत्र कुछ और व्यापक हुआ, विकसित हुआ, भक्ति के भेद हुए और अनेकों धाराएँ प्रवाहित हुईं। निर्गुण-भक्ति, प्रेमाश्रयी-शाखा, कृष्ण-भक्ति, राम-भक्ति और अन्त में सब मिलकर श्रृंगार की तरफ़ चल दिये। एक युग-का- युग शृंगारी कविता करते और नायक-नायिकाओं के भेद गिनते हुए व्यतीत हो गया, न समाज ने कोई उन्नति की और न राष्ट्र ने। फिर भला साहित्य में प्रगति कहाँ से आती ! साहित्य अपने उसी सीमित क्षेत्र में उछल-कूद करता हुआ झूठे चमत्कार की ओर प्रवाहित होता चला गया। भक्ति-कालीन रसात्मकता रीति-काल में नष्ट हो गई और वह प्रणाली आज के साहित्य में भी ज्यों-की-त्यों लक्षित है।
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