जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

कविगुरू रबीन्द्रनाथ ठाकुर  (विविध)

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Author: नरेन्द्र देव

कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी जन्मभूमि बंगाल में शुरूआती सफलता प्राप्त की। वह साहित्य की सभी विधाओं में सफल रहे किन्तु सर्वप्रथम वह एक महान कवि थे। अपनी कुछ कविताओं के अनुवादों के साथ वह पश्चिमी देशों में  भी प्रसिध्द हो गए। कविताओं की अपनी पचास और अत्यधिक लोकप्रिय पुस्तकों में से मानसी (1890), (द आइडियल वन), सोनार तरी (1894), (द गोल्डेन बोट) और गीतांजलि (1910) जिस पुस्तक के लिये उन्हें वर्ष 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

एक महान साहित्यकार होने के साथ-साथ वैसे लोगों को भी भारत के इस महान सपूत के मानव सभ्यता से जुड़े शीर्ष व्यक्तित्व की महानता के बारे में कोई शंका नहीं होगी, जिन्हें इनके जीवन और कार्यों के बारे में थोड़ी सी जानकारी है । वह देश और देशवासियों से प्यार करते थे । वह हमेशा घटनाक्रमों से जुड़ी व्यापक विचारधारा रखते थे और साम्राज्यवादी शासन के अधीन होने पर भी देश का विकास चाहते थे ।

उनकी सर्वोत्तम काव्य कृतियां - व्हेयर दि माइंड इज विदाउट फीयर, दैट फ्रीडम ऑफ हैवन और नैरो डोमेस्टिक वाल उन्हें विश्व बंधुत्व के सच्चे पुरोधा के रूप में स्थापित करती हैं जिन्हें समझने की जरूरत है। उसी प्रकार इनटू दैट फ्रीडम ऑफ हैवन लेट माई कंट्री अवेक में लिखी उनकी अमर वाणी भी समान रूप से महत्त्वपूर्ण है ।

कविगुरु जहां एक ओर एक राष्ट्रवादी और महात्मा गांधी के सच्चे मित्र और दार्शनिक मार्गदर्शक थे  वहीं दूसरी ओर वह राष्ट्रीयता पर अत्यधिक जोर देने तथा संकीर्ण राष्ट्रवाद के विरूध्द थे। इसे इस संदर्भ में देखा जा सकता है कि उन्होंने महानगरीय मानवतावाद को साकार करने के महत्त्व पर जोर दिया। बढ भेंग़े दाव (सभी बाधाओं को तोड़ो) जैसी लोकोक्तियों को हमें उन अर्थों में समझना चाहिए। यह उस व्यक्ति की सीमारहित विलक्षणता ही है कि भारत और बंगलादेश दोनों देशों के राष्ट्रगान उनके द्वारा ही लिखे गए थे।

जहां भारत ने जनगणमन को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया, वहीं बांगलादेश ने भी सत्तर के दशक में अपने राष्ट्रगान के रूप में आमार शोनार बांगला (माई गोल्डेन बंगाल) को चुना।

युद्द और साम्राज्यवाद की अपनी अवधारणाओं में रबीन्द्रनाथ ने साम्राज्यवादी उग्रता और नस्लवादी तथा राष्ट्रीयतावादी भावनाओं के बर्वर प्रदर्शन की निंदा की। उनका कहना है कि युद्द, उग्र राष्ट्रवाद, हथियारों की होड़, शक्ति के महिमामंडन और अन्य ऐसे राष्ट्रीय मिथ्याभियान का परिणाम होता है जिसका कोई अच्छा कारण नहीं होता। आज का विश्व कई हिस्सों में बंटा है और विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक लोगों के बीच विनाशकारी नाभिकीय युद्द का भय निरंतर क़ायम है, ऐसे में इसे एक वैश्विक गांव के रूप में परिणीत करने की जरूरत सचमुच महसूस होती है। किसी भी अन्य लेखों की तुलना में व्यापक बंधुत्व पर कविगुरु के लेखों को समझना बेहतर होगा ।

द डाकघर जैसे उनके कार्य में उनकी मानवतावादी सोच की झोंकिया मिलती हैं। उसी प्रकार उनकी प्रशंसित लघु कथा, 'द चाइल्ड्स रिटर्न'  उनके पात्रों के शरीर और आत्मा को खोज निकालने की उनकी क्षमता को दर्शाती है। रबीन्द्रनाथ ने अपने समर्थकों के भौतिक शरीर को तलाशने में सफलता प्राप्त की और उन्हें हृदय तथा आत्मा दी। अनुवादक मैरी एम लागो ने बाद में नष्टानीर (द ब्रोकन नेस्ट) को ठाकुर का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास बताया जिसमें कथानक अपने समय के काफी पहले पैदा हुई एक गृहिणी के जीवन और समय के इर्द-गिर्द केन्द्रित है। फिल्मजगत के उस्ताद सत्यजीत राय ने बाद में चलकर 1964 में चारूलता नामक बहु प्रशंसित फिल्म तैयार की ।

देशवासियों के लिए उनका अथाह प्यार ही था जिसके कारण उन्होंने वर्ष 1901 में शांति निकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की।

वर्ष 1905 में बंगाल के बँटवारे ने उन्हें बेचैन किया था और राष्ट्रीय हितों से जुड़े मुद्दे के शीर्ष पर स्थापित किया था। इस वाक़ये ने उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों के करीब पहुँचा दिया और उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव सुनिश्चित करने में व्यापक योगदान किया। ख़ासकर उन्होंने राखी जैसे सांस्कृतिक त्यौहारों का इस्तेमाल किया और सभी धर्मों के लोगों से यह माँग की कि वे बंधुत्व के एक प्रतीक के रूप में एक दूसरे क? राखी बाँधे।

मानवता और समाज के लिए उनका प्यार किसी अन्य अवसर की तुलना में अधिक उभर कर सामने तब  आया जब उन्होंने विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा उठाया। जो कुछ उन्होंने लिखा उसे व्यवहार में भी उतारा और वर्ष 1910 में तदनुकूल उदाहरण के तौर पर अपने पुत्र की शादी एक युवा विधवा प्रतिमा देवी से करायी। उसी वर्ष उनका संग्रह गीतांजलि बंगला में लिखा गया और बाद में 1912 में उसका अँग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ। वर्ष 1919 में उदाहरण देकर सिद्ध किया और कुख्यात जलियाँवाला बाग के बर्बरतापूर्ण नरसंहार की जोरदार निंदा करते हुए नाइट उपाधि का परित्याग कर दिया।

रबीन्द्रनाथ अपराध से घृणा करने में विश्वास करते थे न कि अपराधी से। स्वदेशी समाज के संदर्भ में उन्होंने अपने लोगों से केवल अँग्रेज़ों से ही स्वतंत्रता पाने के लिए नहीं कहा था बल्कि उदासीनता, महत्वहीनता और परस्पर वैमनस्यता से भी। स्वदेशी सोच का सृजन और इस कारण उनकी कविता और उनके गीत हमेशा आत्मा पर जोर देते थे। इसलिए यह ठीक ही कहा गया है कि कविगुरु की स्वतंत्रता संबंधी विधि एक बौध्दिक क्रांति थी । उनका लक्ष्य केवल साम्राज्यवादी अँग्रेज़ों को ही भगाना नहीं था बल्कि अँग्रेज़ों से भावनात्मक स्वतंत्रता के कारण आर्थिक संरचना में आई खामियों को भी दूर करके आर्थिक और राजनीतिक सुधार क़ायम करना था।

विद्वानों का कहना है कि महात्मा गांधी और रबीन्द्रनाथ ठाकुर भारत को स्वतंत्र करने के तरीक़े पर अपनी भिन्न सोच रखते थे किंतु दोनों  के बीच काफी निकटताएं भी थीं। गांधीजी ठाकुर को अपना गुरूदेव पुकारते थे और ठाकुर ने गांधीजी को महात्मा  की उपाधि दी । भारत को आज़ाद करने के तरीके के बारे में विचारों की भिन्नता के बावजूद भी इस मुद्दे पर गांधीजी ने ठाकुर से यह कहकर परामर्श किया कि उन्हें मालूम है कि उनका सर्वश्रेष्ठ मित्र अध्यात्म से प्रेरित है और उन्होंने मुझे जीवन में स्थिरता क़ायम करने की शक्ति दी है।

- नरेन्द्र देव

[लेखक स्टेट्समैन, नई दिल्ली में विशेष प्रतिनिधि रहे हैं।]
साभार- पसूका

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